समीक्षा
शब्दों के साथ साथ २ ―लेखक डा. सुरेश पन्त
प्रकाशक ―पेंगुइन स्वदेश, पेंगुइन रैंडम हाउस इंप्रिंट
मूल्य ―२५० रुपये
छोटे छोटे तिरासी अनुच्छेदों में विभक्त पुस्तक, शब्दों के साथ साथ २ (लेखक
डा. सुरेश पन्त), हिंदी भाषा प्रयोग को एक नई दृष्टि प्रदान करती है. भूमिका के
आरम्भ में ही रत्नेश कुमार मिश्रजी लिखते हैं―
“शायद ही कोई ऐसा क्षण हो जब हमारे चारों ओर शब्दों की धमा-चौकड़ी न हो रही हो...केवल
शब्द होते हैं, लिखे-अनलिखे, प्राणी-प्राणीतर, श्रुतिमधुर-कर्णकटु, प्रकट और
अवगुंठित नानाविध शब्द!” इन बिखरे हुए करीब करीब पांच सौ शब्दों से हमारी पहचान
डा. सुरेश पन्त की पुस्तक शब्दों के साथ साथ २ के माध्यम से होती है. शब्दों की पोटली में छिपा है शब्दों का व्याकरण,
इतिहास, भूगोल, समाज और लोक-व्यवहार का उज्जवल पक्ष. उच्चारण, वर्तनी और अर्थ,
जिन्हें लेकर साधारण से असाधारण पाठक तक गच्चा खा जाते है, उनके लिए मार्गदर्शिका
का काम करती लेखक की नवीनतम पुस्तक. डा. पन्त यह कार्य अतीत में भी बखूबी निभा
चुके है. अपनी इस पुस्तक के द्वारा लेखक पुनःएक बार उपस्थित होते है पाठकों के
सम्मुख और समर्पित करते है “उन भाषा
प्रेमियों को, जो निकलते हैं शब्दों के बीहड़ वन में अर्थों के मोती खोजने और
जिन्हें प्रिय है चलना शब्दों के साथ साथ नीर-क्षीर विवेक के लिए.”
संस्कृत, अरबी, फारसी जहाँ जहाँ से शब्द के उद्गम मिलते हैं, वे उन्हें अपनी
झोली में बटोरते चलते हैं. शब्दों के
रास्ते में आनेवाले एक एक रोड़े और कंकड़ों को साफ करती हुई पुस्तक द्रुत गति से चलती हैं. शब्दों की यह
यात्रा उनकी गोमुख से गंगासागर तक की है. सागर में समा कर गंगा अपने अस्तित्व को जैसे
विलीन कर देती है, ठीक उसी तरह शब्द अपनी उबड़-खाबड़ यात्रा लोक व्यवहार के समुद्र में
गोते लगाते हुए समाप्त कर देती है, क्योंकि “शब्दाः लोकनिबंधना”. डा. पंतजी के
शब्दों में, लोक-व्यवहृत शब्द-प्रयोगों का कोई निश्चित मानक हमेशा उपलब्ध नहीं होता
है, क्योंकि “नियमों की अपेक्षा अपवाद अधिक हैं. इनमें अभ्यास के द्वारा ही (‘में,
पर और ऊपर’ के प्रयोग में ) निपुणता पाई जा सकती है.”
पहले-पहल मानव के बोल भाषा के माध्यम से फूटते
है, उस भाषा में एकरूपता लाने के लिए व्याकरण के नियमों
की आवश्यकता होती है, जो भाषा को एक निश्चित और स्थिर आयाम देता है. भाषा में
व्याकरण का वही महत्व है जो कच्ची सब्ज़ी से एक स्वादिष्ट व्यंजन बनाने में घी, मसालों आदि का होता है, तथा सात सुरों से निर्मित किसी राग-रागिनी के रसपूर्ण आस्वादन में होता है. उदाहरण के तौर पर अहम् संस्कृत शब्द किस तरह हिंदी में आकर अहं बन जाता है और अरबी में वही
शब्द अहम (अहम बात यह है) बन जाता और फिर
छलांगे लगाता हुआ अहमियत (भाववाचक संज्ञा बनती) अहमक (नादान, अनाड़ी, बुद्धिहीन) तक
पहुँच जाता है.
अथ’ शब्द का उद्गम लेखक ‘अर्थ’ के ही घिसे हुए रूप को मानते है, उसके
पक्ष में उनका तर्क है संस्कृत व्याकरण का नियम “पृषोदरादित्वात् रलोपहै”.
जिसमे ‘अर्थ’ शब्द का ‘र’ हट जाता है और बच जाता है ‘अथ’. “अथ
शब्दानुशासन” अथवा “अथातो ब्रह्मजिज्ञासा” के सम्बन्ध में ‘अथ’ शब्द का अर्थ मंगल,
प्रारंभ, विघ्न-नाशक इत्यादि अर्थ में लिया जाता है.
‘धर्म’ शब्द जो आज लोक व्यवहार में खास करके तथाकथित शिक्षित समाज में हेय
दृष्टि से देखा जाता है, उसका मूल अर्थ स्वभाव से जुड़ा है, जैसे आग का स्वभाव
जलाना, बिच्छू का स्वभाव काटना. इसके
अतिरिक्त कर्तव्य, समाज के प्रति अपेक्षित आचरण और नियमों का पालन धर्म की अर्थ परिधि में आता है. संकुचित एकदेशीय
साम्प्रदायिक अर्थ लेकर हम समाज में न केवल विच्छिन्नतावाद को प्रश्रय देते हैं,
साथ ही लोगो की भावनाओं को भी आहत करते
हैं, एवं कुछ विवेकशील व्यक्तियों को भी
‘धर्म-संकट’ में डाल देते हैं. एक ओर अर्थ का विस्तार है तो दूसरी ओर अर्थ का
संकोच भी लेखक की सूक्ष्म और पारदर्शी दृष्टि से ओझल नहीं होता है.
भाषा की प्रकृति अत्यंत जटिल, बहुस्तरीय एवं बहुमुखी है—इसका प्रत्यक्ष उदाहरण
देते हुए ‘बात, बातचीत’ शब्दों के प्रसंग में लेखक कहते हैं: ”सारा संसार बातों का ही पसारा है” और उसकी छटा
इस प्रकार बिखेर देते है, जिन्हें बटोरने के लिए अपनी झोली भी खाली रखनी पड़ती है. दृष्टान्त
के लिए―
कोई बात नहीं – घबराहट से
बचाने के लिए,
अजीब बात है –आश्चर्य,
कैसी बात करते हो —बेसिर पैर की बात,
आपकी बात मुझ तक रहेगी —रहस्य या गुप्तभेद अर्थ में,
खास बात न भी हो ―तो बात का बतंगड़ बना देते है.
बात से बतियाना, बतरसिया, बातूनी भाषा की समृद्धता की पुष्टि करता है.
‘आदर’ और ‘सम्मान’ शब्द समानार्थी होने पर भी उनके प्रयोग किस तरह प्रकरण
सापेक्ष हो जाते है, वह हमारी बोलचाल की भाषा में झलक उठता है. इसके साथ जुड़ा है ‘सत्कार’
शब्द. उसका उदाहरण देते हुए लेखक कहते हैं―
बड़ों का सम्मान या आदर करना चाहिए.
अमेरिकी प्रतिनिधिमंडल के सम्मान में भोज दिया गया.
‘आदर’ में मानसिक भाव है और ‘सत्कार’
में क्रियात्मक पक्ष है. तात्पर्य यह है कि पहले मन में आदर की भावना हो उसके बाद
सत्कार की औपचारिकता पूरी होती है, इसलिए शब्द युग्म है ‘आदर-सत्कार. इसी
तरह आग्रह, विनम्रता और निवेदन का अंतर दिखलाने में लेखक जिस सूक्ष्मता का
परिचय देते है, वह उनके दार्शनिक पक्ष को न केवल प्रकट करता है, बल्कि हमारी भाषा
की संपन्नता और सौंदर्य को भी उजागर करता है. “आग्रह में ढिठाई हो सकती है,
पर अनुरोध में मधुरता का भाव मुख्य है. नैवेद्य से बनता है निवेदन. ईश्वर को समर्पित किये जाने
वाले पदार्थ नैवेद्य कहे जाते हैं.”
‘मारना ‘ शब्द के विविध प्रयोग
एवं विविध अर्थों को दिखा कर वे पाठक को प्रबुद्ध कर देते है. सूक्ष्म धागों में पिरोई हुई यह
माला ―आँख मारना/ थोड़ी सी दूर है, पैदल ही मार लोगे/ गंगा में डुबकी
मार ली/ दरवाजे पर ताला मार लो/ घंटों सिर मारा, तब उसकी समझ
में आया/ मार मार कर भरता बनाना/ मार मार कर कचूमर निकालना/गोली मारो
दोस्ती को, और अंत में व्यंग्य करना भी
नहीं छोड़ते है अपनी क़ानूनी व्यवस्था को लेकर ‘कानून की मार से दूर रहेंगे’.
एक ही परिवार के होते हुए भी विपरीत स्वभाव इनके प्रयोगों में साफ झलकता है.
‘अनुभव’ और ‘अनुभूति’
का सुन्दर और सूक्ष्म फर्क दिखलाते हुए लेखक कहते हैं― बुद्धि से सर्दी गर्मी का
अनुभव होता है और अनुभूति चेतना या भावना पक्ष से जुड़ी होती है. मन्त्र से बना है मंत्री
‘जो मंत्रणा अर्थात परामर्श कर विचार विमर्श करे और उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुँच कर
तदनुसार अपने प्रमुख को परामर्श दे, जिसका वह मंत्री है’. आज की राजनितिक
परिस्थिति में मंत्री शब्द अपना यह अर्थ शायद गँवा चुका है.
खाया, खाई, हुआ, हुई, खाई, खाए, आई, आया, चाहिए, चाहिये का तालमेल मिलाना मेरे
लिए भी कई बार मुश्किल हो जाता है और सटीक दिशा निर्धारण करने में असमंजस में पड़
जाती हूँ. तुलना अर्थ में ‘सा’ किधर रखा जाय तुम के साथ या पृथक रूप से,
इसका व्यावहारिक सुझाव लेखक देते हैं हाईफ़न व्यवहार करके. जैसे तुम-सा,
सीता-जैसी, मोती-से दांत इत्यादि. दूसरी एक मुसीबत मेरी दूर हुई जब मैंने देखा
‘गाँववाला’ =ग्रामीण और गाँव वाला मकान = गाँव का मकान में ‘वाला’
कभी गाँव के साथ युक्त होकर प्रयुक्त होता है और कभी अलग होकर रहता है, बिना
अर्थ-बोध के यह प्रयोग संभव नहीं हो सकता. इससे स्पष्ट हो जाता है कि भाषा-प्रयोग
और व्याकरण दोनों सापेक्ष है. कर्कट से कड़ा, करार, विचार करते करते लेखक विपरीत
भाव में प्रवेश कर उदाहरण देते है—प्यार जताने के लिए कंकड़ फेंकना –कंकरिया मार के
जगाया कल तू मेरे सपने में आया बालमा तू बड़ा वो है.
व्याकरण जैसे नीरस और दुर्बोध्य विषय को जिस रस की चाशनी में डुबो कर लेखक
प्रस्तुत करते हैं वह पाठकों को रस से सराबोर कर देता है. “हमरी चुनरिया, पिया की
पगरिया एक ही रंग में रंगी रे”. पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ का किस्सा पढ़ते हुए
मच्छर और खटमल का काटना भी पाठक भूल जाएँगे. मूर्ति और विग्रह का
भेद करते हुए लेखक न्यायालय में श्रीराम को क्यों एक पक्ष माना गया था, उसका भी सटीक
दृष्टान्त देकर उल्लेख करना नहीं भूलते हैं, क्योंकि रामलला प्राण-प्रतिष्ठित विग्रह
हैं.
समवेदना और संवेदना, रंग और रँगना में अनुस्वार और अनुनासिक का फर्क (हँस और
हंस), ‘लोचा’ शब्द अज्ञात व्युत्पत्तिक किन्तु मुम्बईया हिंदी का उपहार, ‘कहना’
सकर्मक क्रिया और ‘बोलना’ अकर्मक
क्रिया, आस्था और निष्ठा, आह्वान में ललकार, पर आवाहन में सौम्यता, विनम्रता,
रूपया अर्थात रुप्यक अर्थात चांदी का, झोल संस्कृत ‘दुल्’ से होकर झोला लटकाए, झोलाछाप, ढीला होना, तरल पेय, रसा,
शोरबा, मांड सभी झोल है, भ्रम से भरमाना―जैसे कितने ही शब्दों का सूक्ष्म अंतर
दिखलाना लेखक की विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण का परिचय देता है.
लेखक की सरल और सहज उक्तियां पाठक को
अनायास आकर्षित कर लेती है. कुछ नमूने प्रस्तुत है—
·
“हिंदी में स्थिति यह है कि नियम भंग कर अपभ्रंश से पधारे हुए श्राप से शुद्ध
तत्सम शाप शब्द को ही शाप देकर बहिष्कृत कर दिया. शापोद्धार आवश्यक लगता है”.
...किस प्रकार विभिन्न प्रकरणों से
उद्धृति देते हुए “शाप को ही शुद्ध मानते है अनेक भाषाओं में ‘शाप’ उपस्थित
है... भारत के बाहर भी थाई, बाली, जावा
आदि भाषाओं में संस्कृत से व्युत्पन्न
‘शाप’ उपस्थित है”.
·
“बहुगुणा = बहुगुना = भगौना” ( यह शब्द तो हमलोग दिन में पचासों बार उच्चारण
करते हैं, लेकिन इसकी व्युत्पत्ति का अंदाज़ नहीं था!)
·
“...जहाँ ‘ओकार’ को मोक्ष दायक ‘ओंकार’ में बदला जा चुका है. हम शत प्रतिशत
नकसुरे हो जाएँगे”
·
“हलंत के काँटे और विसर्गो के पत्थर”.
·
“हल् चिह्न चाहे देखने में छोटा हो किन्तु जब अनावश्यक रूप से किसी अक्षर के
चरणों में इसे लटका हुआ देखते है तो पाठक की आँखों में ही नहीं मन में भी काँटे सा
चुभ जाता है”.
·
“भव के साथ विसर्ग चिपकाने से वेदों, उपनिषदों के वचनों को भी बुरे दिन देखने
पड़ते हैं”.
भाषा
मन के भावों या विचारों का आदान-प्रदान करने का साधन है, अतः सार्थक और स्पष्ट होने के लिए आवश्यक है
कि उनका अर्थ ठीक-ठीक मालूम हो. पर अक्सर देखा जाता है कि भाषा बिना किसी घोषित सूचना के अपने स्वरूप को सहज ही रूपान्तरित कर लेती है, और भाषाविद् शुद्धता और अशुद्धता के प्रसंग को लेकर विवाद में फंस जाते हैं. परम्परा या युगों से जिनके प्रयोग होते आये हैं, वे घास की तरह नरम मिट्टी में स्वयं उग आते है, वे प्रयोग तर्कहीन नहीं हैं. उन्हें समेटते हुए यदि शब्दों की ऊँची उड़ान
भरी जाय तो बेहतर होगा. भाषा को इतने कठोर नियमों के बंधन में न बाँधा जाय कि वह दम
तोड़ दे और न ही उसे इतना मुक्त छोड़ दिया जाय कि कटी हुई पतंग बन कर रह जाए.
क्षेत्रीय प्रभाव के कारण उच्चारण में फर्क पड़ता है, पर उसे दोष न समझ कर उसे
स्थान विशेष का प्रभाव ही समझना उचित होगा.
डा. पन्त प्रख्यात भाषा वैज्ञानिक होने के साथ साथ भाषा कलाविद भी है.अपनी पुस्तक के
माध्यम से वे न केवल भाषा सम्बन्धी नियमों
का ज्ञान विधिपूर्वक देते हैं, बल्कि उसका उपयोग भी
सिखाते हैं. विचारों में शुद्धता यदि
तर्क-शास्त्र के ज्ञान से आती
है, तो भाषा में रसमयता साहित्य-शास्त्र के ज्ञान से आती
है, डा. पन्त इस बात का बखूबी ख्याल रखते हैं, और प्रकरणानुसार वे साहित्यिक उद्धरणों
से अपने कथन को प्रमाणित भी करते है.
डा. पन्त आशा करते है “इस आलेख को पढ़ने-समझने के बाद हिंदी बरतने वाले लोग हलंत के शूल-काँटे बिछाने
और विसर्गो के रोड़े-पत्थर फेंकने से पहले क्षण–भर सोचेंगे.” हिंदी भाषा के पाठकवृन्द और जिन्हें हिंदी भाषा को सीखने में एक
नई दृष्टि की जरुरत है, वे इस पुस्तक को अवश्य
पढ़े.
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