बड़ी बहन और बंदरुआ
१४ अप्रैल को पहला बैशाख का दिन हमारे लिए बहुत इंतजार का दिन होता था क्योकि उस दिन बहुत बड़ा चडक मेला छातूबाबू बाज़ार के पास लगता था  और हम सभी बहने मेला देखने जाते थे और तरह तरह के मिटटी के खिलोने अपनी अपनी पसंद के खरीद के लाते थे – तोता –मैना की जोडी, कबूतरो के जोडे, मिटटी के फल वगैरह वगैरह |वहां से खरीदी हुई एक नटराज की मूर्ति आज  भी हमारे घर में शोभायमान है | लेकिन इस बार हम लोग लाये मिटटी के चूल्हा-चक्की, बर्तन ,कढाई, कलछी, चिमटा और भगोने, इसके साथ ही छोटा अलुमुनियम का स्टोव | अब हमने नये वर्तनो के साथ पिकनिक मनाने की सोची | हमारे यहाँ एक बड़ी अंडाकार गोल टेबल थी, जिसके नीचे बैठने की जगह थी और हममें से कोई भी उसके अन्दर घुस कर बैठ सकता था | अक्सर हम उसे छुपने के लिए व्यवहार करते थे | तो उस दिन हमने ठीक किया अज पिकनिक इसी के सामने मनायेगे | सब मिल कर जुट गए | जोर शोर से काम शुरू हो गया | थोडा मिटटी का तेल लेकर चूल्हा भी जलाया | फिर सबजी काटने का काम , आटा मला गया | सब कुछ नार्मल की तरह  चल रहा था | व्यस्तता इतनी की बात करने की  भी फुरसत नहीं   | अब जब खाना परोसने का समय आया तो थाली में खाना रख कर विचार हुआ कि पेड़ पर बन्दर है पहले उसे ही खिलाया जाय | पेड़ कहाँ और बन्दर कहाँ ? अचानक हमलोगों ने सुना एक आवाज  ‘खो ..खो ...खो ..खो ‘ कही से आ रही है |चारो तरफ घूम घूम कर देखा टेबल के अन्दर से आवाज आ रही है ---खो....खो... खा ...ऊँ....ऊँ...| सबने मुड़ कर देखा बड़ी बहन टेबल के अन्दर छुपी बैठी आवाज कर रही थी | हम लोग सब तालियाँ बजा बजा कर उसके चारो तरफ घूमने लगे यह कहते हुए ‘ बंदरुआ ....यहाँ है ....बंदरुआ यहाँ  है|’ फिर हमने उन्हें थाली में खाना परोस कर दिया, और वह वैसी ही घुसी हुई अन्दर चार पैर के बल पर बैठी हुई  हपड-हपड कर खाने लगी |हम लोग तरह तरह की आवाजों के साथ टेबल के चारो तरफ घूमते हुए उन्हें खिलाने लगे | थोड़ी देर बाद जब हम खाने बैठे तो वह उसी अंदाज में चार पैरो के बल बैठी हमें देखने लगी और धीरे धीरे करके दूसरी तरफ चली गई  | काफी दिनों तक हम उन्हें ‘बंदरुआ’ कह कर चिढाते रहते थे और हमेशा की तरह हंस कर जवाव भी दे देती थी |
बहुत सालों बाद एक बार हम लोगो ने ऐसे ही मजाक में पूछा , ‘ आप बंदरुआ क्यों बन गई  उस दिन’--- तो उनका जवाव बहुत ही मार्मिक और बाल सुलभ भी था , ‘तुम लोग मुझे अपने साथ खिलाती नहीं थी, मेरा भी खेलने का मन करता था , इसलिए मैंने यह तरकीब निकाली |’ अब कभी सोचती हूँ कि हमलोग उनको बड़ी होने के नाते खेल-खेल के खाना बनाने में शामिल नहीं करते थे | उनको तो वैसे भी घर का काम संभालना पड़ता था | लेकिन बाल मन की इच्छा तो बस बाल खेलो से ही पूरी हो सकती  थी न  !!! उस समय उनकी उम्र मात्र ११ या १२ साल की थी , लेकिन वह पूरी परिपक्वता के साथ गृहस्थी संभालती थी |                          (क्रमशः)

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