रस गगन गुफा में
...
मुझे अपने चाय की रेसिपी पर इतना अहंकार
था कि घर में कोई भी मेहमान आए चाय बनाने का बीड़ा तो मैं ही उठाती थी. तो उस दिन शाम के समय कुछ मित्रों को मैंने चाय पर आमंत्रित किया और अपनी वही
चाय बनाई जिसके लिए मै खुद को महारथी समझती थी. चाय देने के बाद मेरा पहला वाक्य होता है, ‘चाय कैसी लगी?’. इस बार एक या दो को छोड़ कर किसी को भी कुछ खास
नहीं लगी, और फिर सबने अपनी अपनी चाय के स्वाद का बयान करना शुरू
कर दिया――किसी को दार्जलिंग,
तो किसी को आसाम, तो किसी को काली चाय, किसी को अदरक वाली, किसी को रोस्टेड. मै तो चुप! बात सच थी.
वस्तुतः
जब कोई पदार्थ जीभ के संपर्क में आता है तो उससे हमें जो स्वादानुभूति होती है,
उसे आयुर्वेद में रस कहा गया है. यूँ भी रस की व्युत्पत्ति ‘सरति इति रसः’ ऐसी
मानी गयी है. अर्थात जो सरणशील, द्रवणशील हो,
प्रवहमान हो, वह रस है अथवा जिसका आस्वादन
किया जाय, वह रस है ―रस्यते आस्वाद्यते इति रस:. वैसे कोई भी
भोज्य पदार्थ हो रस के बिना नीरस ही माना जाता है. आयुर्वेद में खाने पीने की किसी
भी चीज के फायदे इन रसों के आधार पर ही निर्धारित किये जाते हैं. आयुर्वेद में "पानकरस"
का उदाहरण देकर जैसे यह सिद्ध किया गया है कि गुड़ काली मिरिच आदि मिश्रणवाले पेय
पदार्थ में अलग-अलग उपादानों की तिक्तता और
मिष्टता महसूस नहीं होती है, बल्कि एक विचित्र प्रकार के स्वाद की अनुभूति होती है.
हालांकि रस जल का
स्वाभाविक गुण माना गया है, परन्तु जल में भी रस की अभिव्यक्ति
तभी होती है, जब वह महाभूतों के परमाणुओं के संपर्क में आता है.
अतः प्रत्येक रस में अलग-अलग महाभूतों की प्रधानता पाई जाती है.
उदाहरण के लिए मधुर रस का बोध पृथ्वी और जल के मिश्रण से,
अम्ल रस का पृथ्वी और अग्नि के संयोग से,
लवण रस का जल और अग्नि के संयोग से, कटु रस का वायु और
अग्नि के संयोग से, तिक्त रस का वायु और आकाश के संयोग से
तथा कषाय रस का वायु और पृथिवी के संयोग से होता है.
इन्हीं पञ्च
महाभूतों के आधार पर उस पदार्थ का प्रभाव व्यक्ति के शरीर और मन पर पड़ता है. शरीर और मन की साम्यावस्था का कारण रसों का आनुपातिक संयोग
ही कहा जाता है, जिसे therapeutic principle of harmony भी कह सकते
है. रस हमारे सम्पूर्ण शरीर में रक्त के रूप में जीवन
धारा है.
यद्यपि रस का अर्थ
विभिन्न प्रकरणों में स्वाद ही होता है, पर साहित्य में रस का एक अन्य अर्थ― काव्यास्वाद अथवा काव्यानंद के रूप में भी
ग्रहण किया जाता है. इसका उल्लेख करते हए
अथर्ववेद के ऐतरेय ब्राह्मण ६.२७ में कहा गया है कि कला
और आत्मोन्नति का स्रोत
रस है जिसकी अभिव्यक्ति व्यक्ति को एक ऐसे उत्कर्ष
के शिखर पर ले जाती है जो छंद और सुरों से परिपूर्ण होकर अपने
स्वरूप का पुनः निर्माण करती है.
उदाहरण के लिए अपने व्यक्तिगत शोक को महर्षि वाल्मीकि,
रामायण के श्लोकों में परिणत कर देते है, जो उनकी आत्ममुक्ति का कारण भी बनता है.
अतः रस शब्द का प्रयोग रसपूर्ण काव्य के अर्थ में भी होता
है1, जो पाठक या दर्शक के ह्रदय में निहित आवेग को उद्वेलित करता
है तथा उसे एक जटिल सृजनात्मक प्रक्रिया के माध्यम से अलौकिक धरातल पर ले जाता है.
प्रश्न
है कि रसों का निर्माण और उपलब्धि कैसे होती है? इसके उत्तर में कहा जाता है कि रस
व्यक्ति की संरचना में निहित स्थायी भाव से निर्मित होता है, जो अंततः व्यक्ति की
मनःस्थिति को दर्शाता है. भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में नाटक के सन्दर्भ में ऐसे अनेक साधनों की
चर्चा की गई है, जिससे रस की उत्पत्ति होती है― जैसे अभिनेताओं के हावभाव, उनकी भूमिका, उसके अनुसार मनःस्थिति को संयोजित करना,
उन भावों का बार बार मंथन करना, पोशाक-सज्जा आदि का उपयोग. इस तरह रस का सिद्धांत
भारतीय शास्त्रीय नृत्य, साहित्य, कला और रंगमंच के माध्यम से सौंदर्य
का आधार बनता है. कश्मीरी शैव दार्शनिक अभिनवगुप्त का कहना है कि रस किसी भोज्य पदार्थ की तरह वस्तु में न होकर सहृदय
श्रोता में ही उत्पन्न हो सकता है. सहृदय
के अंत:करण में स्थायी भाव सदा विद्यमान
रहता हैं, जैसे मिट्टी में गंध स्वाभविक रूप से रहती है, जो पानी बरसने के साथ साथ
सोंधी खुशबू के रूप में निखर आती है. वैसे ही क्रोध, प्रेम, दया, आदि स्थायी भाव
हमारे अन्दर निहित है जो परिस्थिति के अनुरूप
प्रकट हो जाते है. दृश्य-श्रव्य काव्य के पठन अथवा श्रवण से जो अलौकिक आनन्द
प्राप्त होता है, वही काव्य-रस कहलाता है. रस के बिना किसी अर्थ की
प्रतीति ही नहीं हो सकती है ―न हि रसादृते कश्चिदर्थ प्रवर्तते३
प्रश्न है कि यह रस रहता कहां है?
जाहिर है रस ग्राहक कणिकायें
ही रस का आस्वादन करा सकती है. यदि किसी व्यक्ति में इसका अभाव है तो उसे रसास्वादन नहीं
हो सकता है. सो रस हमारी जिह्वा का धर्म कहा जाता है. यदि रस भोजन या शरबत में ही रहता तो उस भोजन को खानेवाले और शरबत को पीनेवाले सभी को एक जैसा स्वाद मिलना
चाहिए पर शायद वैसा नहीं होता है, क्योंकि मेरी बनी हुई चाय सबको पसंद नहीं आई.
उसका कारण था रस चाय में नहीं था, रस तो उन सबकी जिह्वा में था, इसलिए सबके लिए चाय
रूचिकर नहीं हुई.
इस प्रसंग में
आयरिश दार्शनिक बर्कले का उल्लेख करना प्रासंगिक होने के साथ साथ विचारणीय भी होगा.
उनके अनुसार बाहरी वस्तुएँ, जैसे नदी, पहाड़, झीलें आदि सभी हमारी इन्द्रियों
के माध्यम से ज्ञान के विषय बनते हैं. जिस वस्तु को हम जानने का दावा करते हैं, वह वस्तु इन्द्रियों के अभाव में रंगहीन,
ध्वनिहीन, गंधहीन, स्वादहीन,
स्पर्शहीन शून्य में बदल जाती है. हमारी सुनने
की शक्ति यदि छिन जाय तो आहटें चली जाएंगी, आँखें बंद कर ले तो फूलों से
लदा वृक्ष पल भर में गायब हो जायेगा. सोचने में यह बेतुका लग सकता है, पर ह्रदय पर हाथ रख कर सोचें तो यही सच है.
जब जंगल में कोई
पेड़ गिरता है तो उसकी आवाज कोई नहीं सुनता. पेड़ का अस्तित्व तो वहीं ख़त्म. यदि
जंगल को देखनेवाला कोई न हो, तो जंगल भी ख़त्म. (वैसे जंगल तो देख कर भी ख़त्म किया
जा रहा है). अंततः कहा जा सकता है यदि कोई देखने वाला न हो तो सम्पूर्ण विश्व
पी.सी. सरकार के जादू की तरह गायब हो जाता है. “To be is
to be perceived” का अर्थ है ―’होने’ का मतलब है ‘दिखना’. अहा ! तो
बर्कले कहना चाहते है कि सब कुछ भ्रम है. नहीं, कदापि नहीं! चोट लगने पर जो खून
निकलता है, वह तो सच है. आपके शब्दों को
मै सुन सकता हूँ, यह भी सच है. पर शर्त वही है कि मैंने कानों से शब्दों को ग्रहण
किया है. यदि कान नहीं होते तो मैं शब्दों
को ग्रहण नहीं कर सकता था. यह जो संतरा मै
बाज़ार में देख रहा हूँ, और खरीद रहा हूँ, वह वास्तव में है, क्योंकि मैं उसके रंग,
गंध और स्वाद को चख रहा हूँ. यानि इन्द्रियों के द्बारा ग्रहण कर रहा हूँ. बिना
इन्द्रियों के इनका कोई अस्तित्व नहीं है. सारा विज्ञान इसके सामने धराशायी हो
जायेगा.
रस – रस्यते अनेन इति रसः
काव्य या नाटक की दृष्टि से देखे तो किसी नाटक को देख कर
दर्शकों में जिस रस की उत्पत्ति होती है, उसका कारण तो नाटक के दृश्य, संवाद आदि माने
जाते है. दर्शक किसी कारुणिक दृश्य को देख कर रो पड़ता है या किसी हास्य व्यंग की
कविता को सुनकर हंस-हंस कर लोटपोट भी हो जाता है. कहने का तात्पर्य है कि रस
श्रोता या द्रष्टा में नहीं बल्कि कविता या नाटक में होता है, जो श्रोता के भावों
को उद्वेलित कर अलग अलग रसों की उत्पत्ति करता है. प्रश्न विचित्र है रस का
अवस्थान जिह्वा में है या विषय में ? भोजन और कला
की प्रस्तुति में दोनों मत ही भटकाते है.
इस प्रश्न को सुलझाने से पहले यह देख लिया जाय कि नाटक या काव्य
कला की सामग्री हमें कहाँ से प्राप्त होती है? इसमें कोई शक नहीं कि
नाट्य लोकानुकीर्तन अर्थात लोक जीवन से ही प्राप्त
होता है. लोक जीवन के अनुभवों को कला के आकार में रूपांतरित करके कलाकार
अपना स्वत्व खो देता है, किन्तु वह अपने व्यक्तिगत शोक, प्रेम, भय, आतंक और आनंद
की अनुभूति का विरेचन संगीत, मूर्तिकला, साहित्य और नाटक में रूपांतरित कर देता है. पर यह सोच विचित्र लगती है कि जो रस भोजन में था
वह भोक्ता का हो गया, जो रस नाटक में था वह दर्शक का हो गया. अभिनवगुप्त इस प्रसंग में कहते है कि श्रोता या
दर्शक में भी यह रस तभी उत्पन्न हो सकता है जब वह रसिकरंजन होगा यानि सहृदय होगा. जिन्हें
शास्त्रीय संगीत का बोध नहीं है वे इसे सुनकर भी आनंद की स्थिति में नहीं पहुँच
सकते है. अतः रस दर्शक में ही रहता है, जो नाटक का करूण या प्रेम दृश्य देख कर
करुण रस या रोमांच से भरपूर हो उठता है. क्या यह कहा जा सकता है कि रस न तो अभिनेता में
होता है और न ही श्रोता में, रस तो कला के प्रस्तुतिकरण में होता है, जिसका
प्रदर्शन कर श्रोता को वह रस से सराबोर कर देता है. इसके अतिरिक्त एक और बात ध्यान
में रखने की है कि भारतीय शास्त्रीय
संगीत में प्रत्येक राग एक विशिष्ट मनोदशा को झलकाता है, और संगीतकार की
चेष्टा होती है श्रोता में उस राग-रस को पैदा करना. यूँ
देखा जाय तो कलाओं का प्राथमिक लक्ष्य दर्शकों को रस की अपूर्व अप्रमेय और अनिर्वचनीय अवस्था की समानांतर
दुनिया में ले जाना है, जहाँ उसका दुःख भी आनंद में बदल जाता है. वास्तव जिंदगी
में किसी आत्मीय की मृत्यु से जो शोक उत्पन्न होता वही नाटक में किसी आत्मीय की
मृत्यु हमें आनंद से भर देती है. यह एक ऐसी ‘ममत्व-परत्व-हीन’ दशा है जहाँ मुंह से
सिर्फ निकलता है ‘वाह! क्या गजब का अभिनय था!. क्रोध, घृणा, भय और ऐसी भावनाएं दर्शक के रस का विषय बन जाती है और नाटकीय कला से मुग्ध होकर वह
आनंद
से पूर्ण हो उठता
है, जो उसकी सौंदर्य संवेदनशीलता को विकसित करता
है. पारसमणि के स्पर्श से जैसे लोहा सोना
बन जाता है, वैसे ही गायक और श्रोता के स्पर्श से आनंद रस अभिव्यक्त हो जाता है२.
पुनरावृत्ति
करूँ तो रस अभिनेता/गायक में नहीं हो सकता
है, क्योंकि वह तो उस थाली की तरह है जिसे रखे हुये भोज्य पदार्थ की कोई रसानुभूति
नहीं होती है. रस दर्शक/श्रोता में भी नहीं हो सकता है,
अन्यथा वह नाटक देखने क्यों आता, रस तो नाटक/संगीत की प्रस्तुतिकरण यानि नाट्य क्रिया/गायकी में होता
है ― ‘नटे न रसः, नाट्य एव रस, न तु लोकः’. एक आशंका अभी भी रह जाती है. रस यदि
श्रोता में नहीं है, नट में नहीं है, तो वह प्रस्तुतिकरण में कहाँ से आ टपकता है ?
पाठकों,
अब तक मेरा अभिमान तिरोहित हो चुका था.
* यथा बीजादभवेद वृक्षो वृक्षात्पुष्पं
फलं यथा /
तथा मूलं रसाः सर्वे तेभ्यो भावा
व्यवस्थिताः//
(नाट्यशास्त्र ६.३८)
१.
इस सन्दर्भ में मैं
एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगी. मेरे एक प्राध्यापक जो एक प्रसिद्ध नैयायिक थे,
वे अक्सर “वाक्यं रसात्मक काव्यं” वाक्य पर टिपण्णी करते थे कि यह वाक्य असंगत है,
क्योंकि उच्चरित वाक्य/शब्द का अवस्थान आकाश है, जबकि रस का अवस्थान जल है, तो
वाक्य रसस्वरूप कैसे हो सकता है?
२.
रसं
ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति’
(तैत्तिरीय उपनिषद्, आनंदवल्ली)
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