अस्ति―अस्तित्व
का झिंझोड़
दर्शनशास्त्र विभाग के छात्रों के बीच एक टेनिस टूर्नामेंट
का आयोजन किया गया, पर दुर्भाग्यवश मैदान में खड़े होने के बावजूद छात्र मैच शुरू
नहीं कर पा रहे थे. दर्शक चिल्ला रहे थे, तभी रेफरी ने शांत स्वर में कहा, “खिलाड़ी
अभी इस विवाद में उलझे हैं कि ‘टेनिस वाल’ का अस्तित्व है कि नहीं”. तो आज की वार्ता इसी अस्तित्व शब्द से शुरू करते
है, जिसे अक्सर हम ‘अस्ति’ (‘है’) शब्द का समानार्थी मानते हैं. ‘है’ शब्द
अस्तित्व, सत्ता, विद्यमानता, मौजूदगी, वजूद, होना, सत्य के अर्थ में प्रयुक्त
होता है.
यूँ तो ‘है’ एक क्रिया पद है
जो वाक्य को पूर्णता प्रदान करता है, जैसे ‘यह टेबल है,’ ‘यह किताब है’ इत्यादि. पर मेरा उद्देश्य यहाँ ‘है’ का अर्थ विचार करना है. जैसे घोड़ा शब्द उच्चारण
करने के साथ ही साथ घोड़ा पशु का बोध होता है, वैसे ही ‘है’ शब्द उच्चारण करने से किस
अर्थ का बोध होता है?जाहिर है अस्तित्व, सत्ता इत्यादि का. मै देख सकती हूँ ‘मेरे कमरे में किताबें
हैं, टेबल है, कंप्यूटर है यानि इनकी सत्ता है. कभी कभी कोई विशेष किताब कोई ले
जाता है और वापस नहीं करता है, तो उसका अस्तित्व मेरे लिए ख़त्म नहीं हो जाता है,
उलटे वह पुस्तक मेरी स्मृति को चाहे-अनचाहे झिंझोड़ती रहती है और कुछ ज्यादा ही कचोटती
है.
किसी ने पूछा, क्या कर रही
हो ?’ मैंने कहा ‘लिख रही हूँ’ यह ‘मै’ कौन है―’मैं’ अर्थात शरीर और मन की एक
सांठ-गांठ. समय के साथ साथ शरीर और मन बदलता रहता है, शैशव से वृद्धावस्था तक किन्तु‘
मै’ वही! हर दिन, हर क्षण बदलते रहने के कारण कई बार पुराने मित्र देख कर पहचान
नहीं पाते है, कई बार पहचान लेते है तो कहते “अरे! कितनी बदल गई हो’. स्मृति की
चादर अभी फटी नहीं है. पर उस शंकराचार्य का क्या करे जिन्होंने मंडन मिश्र की
भार्या को शास्त्रार्थ में हराने के लिए मृत अमरु राजा के शरीर में प्रवेश करके,
उनकी स्मृति को आधार बना कर कामशास्त्र में विजय हासिल की. लेकिन शंकराचार्य की
वास्तविक सत्ता का क्या हुआ. कुछ समय के लिए शंकराचार्य का ‘है’ अमरु के ‘है’ में
बदल गया, उनका अपना अस्तित्व खत्म हो गया, और पुनः प्राप्त भी कर लिया.
लेकिन एक दिन मन उदास हो
गया स्थानीय एक कुत्ता जो आस-पड़ोस की रात दिन निगरानी करता था, मध्य रात्रि में किसी
ने उसकी टांग काट दी. अब चोरों को चोरी करने में आसानी हो गई. रात भर वह बिलबिलाता
रहा. एक सहृदय ने सुबह उसे अस्पताल में भरती करवाया, पर टांग नहीं जुडी. यह वही
कुत्ता है जो रात भर जाग कर हमें सोने देता था, पर अब चोरों से सावधान रहने के लिए
हमें जागना पड़ता है. शायद इसी कारण नागेश, प्रसिद्ध वैयाकरण कहते हैं― ‘पूंछ यदि
कट भी जाये हम अपने पड़ोसी कुत्ते के अस्तित्व को नकार नहीं सकते हैं’.
अभी उस दिन की बात है, मै खाना बनाने में व्यस्त थी, इतने
में पडोसी की बेटी चिल्लाती हुई आई, ‘आंटी, चलो, होलिका जल रही है, जल्दी चलो’.
मैंने सोचा वह तो युगों पहले ही जल चुकी है. पर नहीं, यह होलिका की सत्ता वास्तव न
होने पर भी एक औपचारिक
सत्ता है, जिसे हम आरोपित करके प्रति
बर्ष जलाते है.
किस्सा अभी ख़त्म नहीं हुआ था कि इतने में पड़ोसी का बच्चा
रोता हुआ आया वह कमरे में घुस नहीं पा रहा है, क्योंकि वहां सांप है. मै तो घबडा
गई. कलछी, चिमटा जो था हाथ में लेकर दौड़ी सांप को पकड़ने, अरे सांप कहाँ? यहाँ तो
रस्सी पड़ी थी. मेरे दिमाग में खुजली होने लगी. बच्चा रोया, दौड़ा और लिपट गया डर से,
तो सांप का अस्तित्व सच था बच्चे के लिए, अन्यथा वह क्यों डर कर भागता? भ्रम एक ऐसी 'असामान्य' मानसिक स्थिति हैं जिसे हम अस्वीकार नहीं कर सकते है.
मनोरोगी को कभी कभी यह आभास
देता है कि ‘वह निरंतर पुलिस की निगरानी में है’, या ‘मैं दुखी हूं’. मनोचिकित्सक उसके इस भ्रम को असामान्य मानसिक अवस्था कह कर चिकित्सा करते हैं. पर रोगी क्या
करे उसका दर और दुःखी होना दोनों सच है? चिकित्सक भी भ्रम
को विचित्र गलती के रूप में न देख कर, एक दिलचस्प खिड़की के रूप में देखता है. यह भी दुनिया
को देखने का एक नजरिया
है. कोई कोई भ्रम को अर्द्धसत्य भी कहते हैं, पर प्रश्न
है कि पूरा सत्य जानने का दावा तो हममें से कोई नहीं कर सकता है.
लो ! सुबह सुबह मेरा सिर दर्द शुरू हो गया. इतना बुरा सपना देखा कि अब सारा दिन ऐसी
खुमारी रहेगी कि मैं बे-काम हो जाऊँगी. लोग कहते है सपना सच नहीं होता पर मै क्या
करूँ, इस दर्द को तो झेलना ही पड़ेगा,जो सच है.
भारतीय
दर्शन में तो आत्मा की चार अवस्थाओं की बात कही गई है ― जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति.
एक चौथी अवस्था तुरीय कही जाती हैं, जो इन तीनों से
परे है. स्वप्नावस्था में जीवात्मा मन और सूक्ष्म इंद्रियों के साथ वही अनुभव करता है, जो बाहरी इंद्रियों के द्वारा
अनुभव कर चुका होता हैं. जब बाहरी
इंद्रियाँ और मन के कार्य भी निष्क्रिय
हो जाते हैं, तो वह अवस्था सुषुप्ति
कही जाती है. ये सभी अवस्थाएं हमारे लोक व्यवहार में वास्तव है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है.
ज्यादा दूर क्यों जाऊँ―अपने लन्दन वासस्थान के समय क्या
हमने ‘२२१ बी, बेकर स्ट्रीट’ खोजने की कोशिश नहीं की थी, जो प्रसिद्ध जासूस शर्लक
होल्म्स का वासस्थान कहा जाता है, तथा कोनन डायल की कहानियों का एक काल्पनिक
चरित्र है? ऑथेलो, वास्तव दुनिया में न होने पर भी शेक्सपियर के नाटक के पात्र रूप
में अस्तित्वशील है. इसी तरह ‘ख-पुष्प’, ‘शश-श्रृंग’, अर्थहीन नहीं है, अन्यथा बिना अर्थ समझे हम कैसे कह सकते कि यह
अर्थहीन है. कोई कोई तो बंध्या-पुत्र और round-square की सत्ता को भी
स्वीकार करते है, वास्तव न भी हो तो भी यह सत्ता बुद्धिस्थ तो
होती ही है. यदि इन शब्दों की अर्थ-सत्ता न मानी जाय तो
हमें किसी प्रकार से अर्थ-बोध नहीं हो सकता.
किसी ने मुझे ‘चोर, बदमाश’ कह कर गाली दी, मैं जानती हूँ मैं चोर नहीं हूँ, फिर भी मुझे
दुःख होता है, कारण गाली के पीछे छिपी सत्ता मेरे जेहन में
कहीं चुभ चुकी है.
अतएव हम इस निष्कर्ष पर आ सकते है कि ‘है’ का प्रयोग असंभव, संभावित तथा वास्तव सभी अर्थो में किया जा सकता है.
यहाँ तक कि निषेधात्मक वाक्य जैसे ‘वृक्ष नहीं है’ में भी
पहले हम वृक्ष का अस्तित्व स्वीकार करते है, फिर उसका निषेध करते है. सोचने की
क्षमता हमारे अस्तित्व को प्राणदान करती है. इस प्रसंग में उल्लेखनीय है देकार्ते का सिद्धांत I think,
therefore, I exist. सपने हो, भ्रम ज्ञान हो, झूठे आरोप हो, काल्पनिक सत्ता हो,
आभासिक सत्यता हो, सभी हमारे बुद्धि के
दायरे से जुड़े है.
वैसे सत्ता शब्द का
लाक्षणिक प्रयोग आजकल राजनैतिक सत्ता के रूप में काफी चर्चा का विषय बन चुका हैं. हमें स्वीकार करना पड़ेगा कि उसका सम्बन्ध
भी राजनीतिज्ञों के अस्तित्व संकट से जुड़ा हैं. राजनीतिज्ञ आपसी तनाव व टकराहट को झेलते हुए अपने अस्तित्व
या वजूद की रक्षा में जुटे रहते है. हम सभी किसी न किसी अर्थ
में अपने अस्तित्व की रक्षा में जुटे रहते है. ‘वृक्ष है’ कहने का इतना ही तात्पर्य है कि वृक्ष में ‘आत्मभरण’ की क्षमता है अर्थात
‘स्वयं को बचाए रखने की क्षमता है’. इसी तरह जो व्यक्ति मृत्यु के करीब हो, उससे
यदि आगत व्यक्ति पूछे, ‘क्या चल रहा है?’ उसका सीधा उत्तर होता है―’किसी तरह दिन
कट रहा है’. अर्थात बचे रहने की कोशिश कर
रहा है, जिसे हम struggle for existence भी कहते है. ‘आत्मभरण की चेष्टा’ ‘है’ क्रिया का फल है. बंगला में लोग स्पष्ट भाषा में कहते हुए सुने जाते है―बेंचे
आछि अर्थात वह स्वयं को बचाने की कोशिश में लगे है. यह अनुभव का विषय है तर्क का
नहीं. लेकिन यह विखंडन ही मुझे ख़त्म होने से रोकता है, और अस्तित्व को विस्तार
देता है.
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