...मैं कहता आंखिन की देखी
कबीर का एक प्रसिद्ध वाक्यांश इस
बात की पुष्टि करता हैं कि ‘प्रत्यक्षमेव प्रमाणं’ | उधार के ज्ञान पर निर्भर
रहने के बजाय जीवन की प्रत्यक्ष,
अनुभवात्मक समझ ही वैधता का तमगा पाता हैं । न्यायालय में तो साक्षी यानि प्रत्यक्षदर्शी ही
अंतिमेत्थम माना जाता है | प्रत्यक्ष अर्थात इन्द्रियों के द्बारा
प्राप्त ज्ञान | पर इन्द्रियां यदि धोखा दें, तो आँखों पर विश्वास कैसे किया जाय | प्रसिद्ध दार्शनिक
देकार्त कहते हैं जो एक बार धोखा दे उसका विश्वास नहीं करना चाहिए | तो फिर इन्द्रियों
का विश्वास कैसे किया जाय ?
इसके सम्बन्ध में प्रसिद्ध
न्यायाधीश Leibowitz कहते हैं कि साक्षी यानि प्रत्यक्षदर्शी विश्वसनीय नहीं होते
हैं | वे उदाहरण देते हैं कि किसी एक क्लब डिनर में उन्होंने लोगों से पूछा ‘कितने
लोग camel सिगरेट पीते हैं, जो उस समय की विख्यात ब्रांड थी | उन्होंने पांच लोगो
को उनमे से चुना और एक टोस्ट मास्टर से पूछा – दिन में वह कितनी सिगरेट पीता है,
और कितने साल से पी रहा है ? टोस्ट मास्टर ने जवाब दिया ― दो पैकेट दिन में, बीस
साल से | उन्होंने हिसाब लगा कर बतलाया कि पिछले २० साल में १४,००० हज़ार पैकेट ! और
कम से कम पचास हज़ार बार उसने पॉकेट से पैकेट
निकाला होगा | उन्होंने पांचों को एक कागज के टुकड़े पर लिखने को कहा कि सिगरेट के
पैकेट पर ऊंट की पीठ पर आदमी सवार है अथवा आदमी ऊंट को ले जा रहा है | दो ने लिखा आदमी ऊंट
को ले जा रहा है, दो ने लिखा आदमी ऊंट पर सवार है और एक ने लिखा उसमे कोई आदमी
नहीं है | उन्होंने पुनः कहा आप अपने पॉकेट से पैकेट निकाल के देखे | उसमे कोई आदमी नहीं था | इस तरह
उन्होंने seeing
and perceiving की करामाती दुनिया को अनावृत्त किया | पर इस चर्चा में दर्शन एक पैर आगे जाता है | वास्तव में हम पूरी वस्तु कभी देखते ही
नहीं | हम एक हिस्सा मात्र देखते हैं और
पूरा विश्वास कर लेते हैं, या अनुमान कर लेते हैं |
सर्दी का मौसम, सुबह का
समय, चारो तरफ कोहरा –आपने खिड़की से झांक कर देखा नीचे कोट पहना और टोपी लगाये कोई
व्यक्ति जा रहा है | आपने अनुमान लगा लिया कि मेरा पडोसी हरिराम जा रहा है | पर
आपने देखा था सिर्फ कोट और टोपी | दोपहर
में हरिराम से मुलाकात होने पर आपने कहा , ‘आप सुबह सुबह कहाँ जा रहे थे ?’
अब देखे यह टेबल मेरी आँख के सामने रखी है
जहाँ बैठ कर मैं काम कर रही हूँ | मान लीजिये हम
सभी इसे खुली आँखों से
देख रहे हैं | दोस्तों... तिष्ठ... क्या सचमुच देख रहे है? हाँ, हाँ, बिलकुल देख
रहे है ? इसके चार पैर है, ऊपर एक काठ का तख्ता लगा
है, जो सामान, किताबें और कम्प्यूटर
आदि रखने के लिए इस्तेमाल किया जाता है | मुझे
लगता है― आपको कुछ गलतफहमी हो गई | मुझे कतई नहीं मालूम की यह तथाकथित-टेबल
क्या है ? मैंने तो टेबल का सिर्फ एक पैर ...या सामने वाला थोडा सा हिस्सा ...या
फिर ऊपर की सतह देखी है | आपने क्या पूरी टेबल देख ली ? ईमानदारी से यदि जवाव दे
तो आपने सिर्फ एक हिस्सा देखा है | बाई तरफ से एक हिस्सा देखा...दाहिनी तरफ से
दूसरा हिस्सा देखा लेकिन पूरी की पूरी टेबल देखना आपके के लिए असंभव है | पुनः सोचे ― आपने टेबल नहीं सिर्फ एक हिस्सा
देखा है | किताब के कुछ पन्ने पढ़ कर क्या आप कह सकते हैं कि आपने पूरी किताब पढ़ ली
? नहीं न ? तो टेबल का एक हिस्सा देख कर कैसे कह सकते हैं कि यह सम्पूर्ण टेबल है
? आपने जो देखा वह काठ का टुकड़ा मात्र है
| मैं तो जानना चाहती हूँ कि यह टेबल आखिर क्या बला है ! मान भी ले कि आपने अलग
अलग हिस्सों को अलग अलग समय में देख लिया पर उन्हें जोड़ने का काम आपने कब और कैसे
किया ?
चलिए, मान लिया कि यह काठ का कोना टेबल है, तो फिर प्रश्न उठता है कि जैसी आप देख रहे हैं
क्या वैसी ही मैं देख रही हूँ ? या आपके बगल में बैठा दोस्त भी क्या वैसा ही देख
रहा है ― जैसा हम और आप देख रहे हैं ?
नहीं, क्योंकि हमारी आँखें अलग अलग है | क्या आप मुझे अपनी आँखे उधार दे
सकते हैं ? मैं भी देखना चाहती हूँ कि आपको कैसा दिखाई देता है | बातों बातों में हम भी कहते कि ‘जरा मेरी आँखों
से देखो तब बात समझ में आयेंगी’ पर वास्तव में वैसा होता नहीं है | हम अपनी आँखें
नहीं बदल सकते हैं किसी से | इसके अलावा हमारा स्थान, हमारी आँखें और रोशनी बिलकुल अलग है, तो हम एक जैसा कैसे देख
सकते हैं ? उदाहरण के लिए जब आप आडिटोरियम में बैठ कर किसी जलसे का आनंद लेना
चाहते हैं तो आप सामने क्यूँ बैठना चाहते हैं, क्योंकि वहां से साफ दिखता है | सामने
वाले ज्यादा स्पष्ट और पीछे वाले कम स्पष्ट |
चलिए फिर मान लेते हैं कि हम सबने टेबल देखी―किसी ने स्पष्ट और किसी ने
अस्पष्ट | पर आप जरा अणुबीक्षण यंत्र की सहायता से देखे, क्या यह वही टेबल हैं ?
जी नहीं, यहाँ तो अणु-परमाणुओं का समूह
दिखाई दे रहा हैं, जो बराबर नृत्यरत है | किन्तु यह टेबल तो एक ही जगह स्थिर है यह
तो नृत्यरत नहीं है | आपने ठीक कहा, थोड़ा थोड़ा संदेह मुझे भी होने लगा है कि शायद
हम ठीक नहीं देख रहे हैं | वास्तव में टेबल गतिशील है जबकि हम नंगी आँखों से देखने
पर वह वैसी दिखाई नहीं देती है | शक्तिशाली अणुबीक्षण यंत्र की सहायता से तो काठ
की सतह सपाट न होकर पहाड़ो की तरह उबड़खाबड़ हो जाती है | आप तो अचम्भे में पड गए ! क्या यह वही मसृण टेबल
है ? बिलकुल, वही है पर उसकी दास्तान बदल
गई है | आपने आँखों से जो भी देखा सब झूठ था ? अणुवीक्षण यंत्र जो कह रहा है वही
सच है क्या ? शायद भविष्य में इससे भी ज्यादा शक्तिशाली कोई वैज्ञानिक यंत्र का
अविष्कार हो जाये तो हम और भी बहुत कुछ देख पायेंगे जो अभी नहीं देख सकते हैं |
लेकिन फिर सच का निर्णय करना कठिन हो जाता है | यह अजीबोगरीब सवाल है, पर हम तो सच
जानना चाहते हैं | आये दिन खबरों में सुनने को मिलता हैं –अमुक अमुक खबर के पीछे
का सच क्या है ? जो हमने देखा, या जो आपने देखा, या जो अनुसन्धानकर्ता ने देखा
अणुवीक्षण यंत्र की मदद से | सच नहीं जान पायेंगे ...किसने सच देखा और क्या देखा ?
हमने जो देखा वह कामचलाऊ कह सकते हैं
|
आकाश के तारों को देखने के लिए हम अणुवीक्षण
यंत्र का सहारा लेते है | मरने के बाद भी तारे अपनी रोशनी हम तक पहुँचा जाते है | क्योंकि उनकी
रोशनी पृथ्वी पर पहुँचने से पहले ही अपने कक्ष से निकल चुकी होती है | कितने आश्चर्य
की बात है ! क्या हमने कभी मृत व्यक्ति की श्वासें अपने तक पहुँचते देखी है ? अरे
ज्यादा दूर न जाये, पृथ्वी घूमती है चौबीस घंटे पर हम स्थिर रहते हैं | हमें एहसास
ही नहीं होता कि हम बराबर हिल रहे हैं|
ऐतरेय ब्राह्मण ३.४४ के सन्दर्भ से यदि कहूँ तो ―
स वा एष (आदित्यः) न कदाचनास्तमेति नोदेति , तं यदस्तमेतिति मन्यन्तेऽहन एव
तदन्तमित्वाऽथ यदेनं प्रातरुदेतीति
मन्यन्ते रात्रेरेव तदन्तमित्वा | स वा एष
न कदाचन्न निम्नोचित |
(यद्यपि ‘सूर्य
उदित होता है और अस्त होता है’ ― ये कहना वैज्ञानिक दृष्टि से असंगत है, परन्तु
व्यवहारिक दृष्टि से ऐसा प्रयोग किया जाता हैं | वास्तव में सूर्य न अस्त होता है, न उदित
होता है |)
मैं तो किसी सिद्धांत पर आ नहीं पा रही हूँ | वस्तुतः हम विश्वास करते हैं कि ‘यह् टेबल हैं’, ‘सूर्य
अस्त होता है’, ‘सूर्य उदित होता है’ ‘पृथिवी स्थिर है’, ‘सूर्य
पूरब से पश्चिम की ओर चक्कर लगाता है’, पर हम जानते है कि सूर्य स्थिर है, पृथिवी घूमती है |
डा मधु कपूर
प्राक्तन दर्शनशास्त्र की एसोसियेट प्रोफेसर
विवेकानंद कॉलेज, ठाकुरपुकुर, कोलकता
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