बहन और कॉलेज का एडमिशन
खिड़की के पीछे से एक छाया दिखाई दे रही थी | खिड़की से ही सटा
हुआ था ताई और ताऊजी का कमरा | किसकी छाया ? तनाव में तो हम सभी बहनें थी क्योंकि
आज कॉलेज एडमिशन का अंतिम दिन था | बड़ी बहन का एडमिशन अभी तक नहीं हुआ था | उनका
मन अंकगणित पढने का था, पर तब तक अंकगणित की सारी
सीटें भर चुकी थी | गणित में आनर्स पढ़ने की तो अब कोई उम्मीद नहीं रही | आज
अंतिम दिन था बाकी विषयों में एडमिशन का, जहाँ
कुछ सीटें अभी भी खाली थी | पिताजी ने कहा , देखो हम इंतजाम करते है जिस विषय में मिले उसी में एडमिशन ले लेना, कम से कम पढाई तो
चालू रहे | लेकिन कैसे ? सुबह का ११ बज गया अभी तक पैसे का कोई इंतजाम नहीं हुआ था
| इसी तनाव में बहन खिड़की के पास बरांडे में खड़ी थी | निराश होकर उम्मीद छोड़ चुकी थी | रोने की
इच्छा हो रही थी , पर रोये भी तो कैसे ? पिताजी कोशिश तो कर ही रहे थे | वैसे भी बहन
का स्वभाव प्रतिवादी नहीं था , जो हो रहा
था उसी को वे स्वीकार कर लेती थी|
अंत में कोई उपाय न देख कर पिताजी ने ताऊजी से धीरे से कहा
, “ उमा के एडमिशन के लिए ११ रुपये फीस के चाहिए, आज अंतिम दिन है भरती होने का,
उमा की पढाई छूट जाएगी |“ ताऊजी ने कोई जवाव नहीं दिया | उस समय तो मुझे बहुत
गुस्सा भी आया और अपमानित भी लगा , साथ ही साथ बहन पर दया भी आ रही थी | अब क्या
होगा ? बहन आगे नहीं पढ़ पायेगी क्या ? चिंता से दिमाग में तनाव और गुस्सा ही आ रहा
था | किस पर ? स्वयम पर ? यदि मैं कमाती होती तो यह नौबत ही न आती | लेकिन आज
सोचती हूँ तो लगता है कि शायद ताऊजी ठीक थे, उन्होंने कोई उत्तर नहीं दिया | यह
कोई एक महीने की बात तो नहीं थी , फ़ीस तो हर महीने देना पड़ता | शायद यही सुनने के
लिए बहन खिड़की के पीछे खड़ी थी कि ताऊजी क्या उत्तर देते है | ताऊजी का उत्तर सुन कर उनकी रही सही उम्मीद भी चली गई और
उन्होंने ऊपर सर उठाया आकाश की तरफ देखा और चुपचाप मुंह लटका कर भरी दुपहरी में बरांडे में खड़ी रही | ममी ने जब खाने को
बुलाया तो वह सिर्फ़ रुआंसी होकर बोली , “भूख नहीं है |”
हम लोगों का भी मन ख़राब , “बहन की पढाई अब बंद |” जबकि और
दूसरे घरों में लड़कियों को ज्यादा पढ़ने की मनाही थी पर हमारे पिताजी की तीव्र
इच्छा थी कि हम बहनें खूब पढ़े और जो दुख उन्हें झेलने पड़े वो हमें न देखना पड़े |घर
के दायित्व पालन करने में वे खुद पढाई लिखाई नहीं कर सके थे , इसका उन्हें बहुत
मलाल और गम भी था |वे अपनी इच्छा शक्ति के बल पर ताऊजी के पास बैठ कर अंग्रेजी
पढने कि कोशिश किया करते थे | बाद में वह खुद अख़बार आदि पढ़ना भी सीख गए थे | इसलिए
वे चाहते थे बच्चे खूब पढ़े | हम सब भगवान
को याद कर रहे थे , कहीं से कुछ आशा की किरण दिखाई दे | अचानक २.३० बजे ताऊजी ने
बहन के हाथ में कुछ रुपये देकर कहा , “जाओ , जल्दी स्कूल जाओ और एडमिशन ले आओ ,
अभी समय
है | ४ बजे काउंटर बंद हो जायेगा |” बहन दौड़ती दौड़ती कालेज पहुंची और किसी
तरह हिंदी आनर्स में एडमिशन लिया | उन्होंने भी मेहनत में कोई कोताही नहीं की और
प्रथम श्रेणी में आनर्स पास किया | जबकि साहित्य में सुनते थे उन दिनों प्रथम श्रेणी पाना दुर्लभ था | उनकी एक और आदत
थी –जब वह अपना नाम किताबो में कही भी लिखती थी हमेशा अपनी डिग्री जरूर लिखती थी |
चूँकि वह बी. ए. पास हो चुकी थी इसलिए वह लिखती थी –उमा कपूर, बी. ए. (Hons) +आनर्स | हमलोग उनका इसे लेकर इतना मजाक उड़ाते थे कि –‘ये तो होन्स है|”
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