बड़ी बहन और हमारा बार्षिकोत्सव
हम अपनी बहन के नृत्य और गायन के तो वैसे
ही कायल थे , और जब उन्होंने प्रस्ताव दिया कि क्यों न हम लोग एक प्रोग्राम का
आयोजन करे जिसमे हम सभी बहने अंश ग्रहण करेगी किन्तु हमारे मास्टरजी का पार्ट खुद
उनके ही हाथ में रहेगा |और क्यों न होता
उन्ही को नृत्य , गान, नाटक वगैरह वगैरह
सब आता था | हम लोग उनके प्रस्ताव से सहर्ष राजी हो गये, वह तो होना ही था |जोरशोर
से हम रिहर्सल में लग गए | वो हमें गाना
नाच नाटक का अभ्यास तो रोज शाम को करवाती ही थी, उसके साथ कभी कभी लोजेंस का लोभ
दिखा कर कुछ अतिरिक्त समय रिहर्सल भी करवा
लेती थी | वह सब हम छोटी बहने ख़ुशी ख़ुशी करते थे क्योकि स्कूल के उत्सव में हम
अपनी आर्थिक तंगी के कारण भाग नहीं ले पाते थे, इसलिए अपनी मन की आस मिटने का यह
सबसे अच्छा तरीका था | स्कूल में कई बार चयन होने के पश्चात् हम भाग नहीं ले
पाते थे उसका कारण था हमारे पास ड्रेस
सिलवाने के पैसे नहीं होते थे | जो भी हो १५ से २० दिन तक हमारा रिहर्सल चलता था , फिर बाकायदा निश्चित दिन आने के
पहले हमारी उत्तेजना बढती जाती थी | चूँकि
बहन निर्देशक थी , इसलिए सबका कार्यक्रम अलग अलग देख कर पुनः अभ्यास करने का आर्डर
देती थी |
एकमात्र मंगलाचरण अर्थात उद्बोधनी संगीत में
सभी का भाग लेना अनिवार्य था, सो गाने की प्रैक्टिस एक साथ करनी पड़ती थी |उस एक
समय की बात है जब सूर्य बन्दना से आरम्भ
होना था प्रोग्राम ---- आदि देव नमस्तुभ्यं प्रसीद मम भास्करम .....निश्चित दिन से
पूर्व ही साड़ी, सलवार कमीज़ और एक जोडी पैंट शर्ट की व्यवस्था की गई | एक पंजाबी
नाटिका में पैंट शर्ट की आवश्यकता पड़नी थी
| उसके बोल कुछ इसप्रकार से थे --- लड़की कहती है
----“मुझे साड़ी लेनी जरुरी, पम सैकल गहने लादे, मुझे सिनमा देखन जाना जल्दी
एक टिकेट कटा दे , ....पै खाली|” तो लड़का जवाव में कहता है “लावा कितथे देख मरे बोंजे खाली ...” |
पर्दा टांगने के लिए मम्मी की साड़ी का
इंतजाम किया गया जिसको दो तरफ से पकड़ कर दो बहने खड़ी हो जाती थी और पर्दा उठाने या
गिराने का काम करके तुरंत अपने अपने स्थान पर खड़े हो जाते थे | परदे की व्यवस्था ऊपर टांड से रस्सी
बाँध कर की जाती थी | पुतुल बहुत छोटी होने के कारण हमलोग उसे सभी
कार्यक्रमों में कुछ न कुछ रोल दे दिया करते थे , जिससे उसे निर्वासन की तकलीफ न हो, और शामिल होने का आनंद
भी वह ले सके | आँख के इशारे से हम उसका
दूध भात ही मानते थे | उसके पास एक सतरंगी फ्रॉक, फ्रॉक क्या वह तो लम्बा लहंगा ही
था, जिसे ममी ने तरह तरह कि रंग बिरंगी कतरनों को जोड़ कर बनाया था | उस फ्रॉक को
देख कर हमें इतना मजा मिलता था कि जिधर से देखो एक नया रंग झलक पड़ता था | पुतुल की
भी वह पसंदीदा फ्रॉक थी | उसी को पहन कर उसे नाच में शामिल किया जाता था | हमलोगों ने उसका नाम रखा था बंदरुआ वाली फ्रॉक
| आज जब सोचती हूँ तो लगता – बच्चे जहाँ ब्रांडेड कपड़ो के अलावा कुछ पहनना पसंद ही
नहीं करते वहां सत्तर जोड़ो से बनी फ्रॉक हमें “स्वर्ग की तुरई” नजर आती थी | कितना प्यारा और मासूमियत भरा दृष्टिकोण था |
घुमर नाच में वह इतनी सुन्दर और अनोखी लग रही थी कि हमलोग कई बार ममी से अनुरोध
करते थे कि हमारे भी लिए ऐसी ही एक एक फ्रॉक बना दो | और एक आइटम बड़ी बहन का सोलो था जिसमे वह एक
तराना गाती थी | उसके बोल इस प्रकार के थे
– तोम ताना नाना नाना देरे न देरे न दिन त दिन तान देरे तदा ...” | उस तराने की
नक़ल और उसके साथ बंदिश जो शायद बसंत बाहर में थे --- कैसी निकसी चांदनी .... हम
खूब गाया करते थे और उसके साथ अभिनय भी करते थे | आता जाता कुछ नहीं था सिर्फ़
मुग्ध होकर सुनते और नक़ल किया करते थे |
विशेष टिफ़िन का आयोजन किया था जाता था,
जिसमे सिंघारा और दानादर, गुझिया, जो बहन का बहुत ही प्रिय था| अभी भी जब कभी वह
कलकत्ता आती थी तो दानादर और गुझिया मंगाना
और खाना नहीं भूलती थी, या जब हम
दिल्ली जाते तो गुझिया ले जाना न भूलते थे, और वह अपने यह पसंदीदा मिठाई किसी के
साथ शेयर करना पसंद भी नहीं करती थी, सिर्फ़ खुद ही थोड़ी थोड़ी करके रोज खाती थी |
मंच के पास ही एक गडूये में पानी भर कर
रखने का इंतजाम किया गया, जिससे किसी को कमरे से बाहर जाने की जरुरत न हो | दोपहर का खाना खाने के बाद
कार्यक्रम शुरू होता, करीब एक बजे से | पहले ही आइटम सूर्य स्तुति में मैंने
बंटाधार कर दिया, किसी कारणवश मैंने अंगुली उठा कर कुछ संकेत कर दिया था | और बहन
का पारा गुस्से से ऊपर चढ़ गया | मैंने शायद पहली बार उनको इतना गुस्सा करते देखा |
उन्होंने आदेश ही दे दिया –- अब कुछ नहीं होगा सब मटियामेट हो गया, सब पैकअप कर
लो | खेल ख़त्म पैसा हज़म |आधा घंटा उन्हें
मनाने के बाद , फिर कार्यक्रम शुरू हुआ लेकिन उनका गुस्सा ठंडा नहीं हुआ | उन्हें
उम्मीद थी कि कार्यक्रम बिलकुल प्रोफेशनल ढंग से किया जायेगा | लेकिन हम चूहों ने उनकी
उम्मीद पर पानी फेर दिया | फिर भी मुझे याद है कि जब उन्होंने नृत्य का कार्यक्रम
पेश किया तो दर्शक वृंद में बैठे हम चारो बहने झूम झूम कर उसका आनंद ले रहे
थे | ममी की हरी बूंदी वाली सिल्क की साड़ी, लांग बाँध कर पहने बहुत सोफियानी लग रही थी | उनके घुंघरू कि माला
आज भी मेरे पास सुरक्षित रखीं है | जब जब वह नाचती थी ---“चन्द्र तपन कर आरत शिवजी
, झी झी कर हल हल गंगा खलक्कत , नाचत शंकर धड़न न किटी तक ...किटी तक थुन थुन धा ,
....हम भी अपना पैर तिहाई आने पर वैसे ही पटकते थे |स्मृति आज भी उतनी ही ताज़ी और
संवार कर रखीं है मानो कल की घटना है |
शाम छ बज गया कार्यक्रम चल रहा था , अचानक
किसी ने दरवाजे को जोर से धक्का मारा और
ताई जी सामने अग्नि वर्षण करती हुई खड़ी थी –उनकी गगन भेदी आवाज सुनाई दी ---“ये सब क्या हो रहा है , हम कहे कमरा बंद कर
क्या हो रहा है शाम हो गई है , चलो चाय
बनाओ “ |
बहन सुडसुड करके सब कुछ छोड़छाड़ कर भागी
चौके की तरफ | आह ! उनका वह सपना आज भी दिल में हिलोरे मारता है |
Comments
Post a Comment