बड़ी बहन और कबीर, तुलसी, सूर, मीरा

“रस गगन में गुफा ऽ          में अजर झरे , रस गगन में गुफा ऽ          में अजर झरे” 

मन को झकझोर देनेवाले कबीरदासजी की वाणी और बहन का सुर एक अजीबोगरीब प्रश्न सामने खड़ा कर देता ---कौन सा रस, कैसा रस ? रस की गुफा ? कहाँ ?  फिर भी उनकी आवाज का रस जादू हम पर जाता था और हम फटी आवाज में उनके साथ  गाने के लिए मजबूर हो जाते | वह फिर तान छेडती, “पायोजी मैंने राम        ऽ रतन ऽ    ऽधन पायो” —उनका यह ‘रतन-धन’ शायद कोई कभी नहीं समझ सका |  कभी वह गा उठती ,  “भज मन राम चरण सुख दाई...जिन चरणों ....से निकल सुरसरि....शंकर जटा समाई ....” उनका ‘राम-चरण’ बस यही गीत संगीत था , जिसके पीछे-पीछे  हम सभी बहने नक़ल करके गाया करते थे| इसलिए आज भी उनके शब्द जेहन में बस उतरे हुए है, लेकिन गाने की  सामर्थ्य हममें से किसी में भी नहीं है  |उनके पास  एक सिंगल रीड का हारमोनियम था जिसे पिताजी ने बड़ी कसौटी से उनकी जरुरत देख कर पैतीस रूपये में खरीद दिया था | उसपर वह हर समय कुछ न कुछ बजाया करती रहती थी | हमें आश्चर्य होता था जब वह किसी भी गाने को सुन कर हारमोनियम में बजा लेती थी | हम बहने मुंह फाड़ कर ताका  करते थे कि अभी अभी तो उन्होंने गाना सुना और अभी हारमोनियम में उतार लिया !! हम उनकी प्रतिभा के कायल तो थे ही,  पर यह देख कर तो हमारा मुंह फटा ही रह जाता था| हम भी उनके उस पैतीस रुपये वाले हारमोनियम पर अक्सर हाथ मारा करते थे, पर वह सिर्फ़ सा रे  ग म तक ही सीमित रहता था | काफी सालो बाद उनको किसी एक समय बाईस हज़ार का हारमोनियम भी ख़रीद कर दिया गया, पर उन्होंने कभी उस पर हाथ भी न फेरा | क्यों ? ऊपर वाला ही जानता होगा !!!

स्कूल में हर वार्षिकोत्सव और कबीर, तुलसी, मीरा, सूर जयंती पर उनके गाने का आयोजन निश्चित रहता था | हमलोग भी उनका प्रोग्राम देखने जाते थे और रात में सब एक साथ लौटते थे  | एकबार फादर कामिल बुल्के ने उनके गाए तुलसी के पदों की इतनी प्रशंसा की कि, हम सभी बहने काफी दिनों उसकी चर्चा में व्यस्त रहते थे | छोटे मुंह बड़ी बात ? चर्चा  करने की उम्र ही नहीं थी , पर उस याद को ताजा करने के लिए  वह गाने हम भी कंठस्थ कर लेते थे | आज भी उन गानों के सुर याद है , गा भले ही न पाए | तुलसीदासजी  का यह पद तो भुलाये नहीं भूलता, “ अवधेश के द्वार सकार गई सुत गोद के भूपति लै निकसे | अबलोकहूँ सोच बिमोचन को ठगी सी रहिजे न ठगे दिक से .... ..” | अक्सर शाम के वक्त ताईजी उनसे यह पद सुना करती थी | वह हारमोनियम खींचती और गाना शुरू कर देती , ऐसा लगता किसी ने टेप रिकॉर्डर  का कान मरोड़ा और गाना शुरू हो जाता | वह स्कूल और कॉलेज में कहीं भी कुछ भी सुनकर आती उसे डायरी में नोट कर लेती और घूम घूम कर गाती रहती | ऐसा ही एक गीत था उनके पीएचडी गाइड डॉ. दयानंद श्रीवास्तव जी का 

“ कौन तुम आज अनजान में मिल गई , कौन तुम   |

तुम मिली तो तिमिर के डगर में मिली |......

अश्रु और मुस्कान में मिल गई , कौन तुम |

अभी कुछ बर्षो पहले भी मै उनसे यह गाना सुन कर आयी थी, जो उन्हें ज्यों का त्यों बिना किसी अटक के लय सहित याद था, जबकि गाना छोड़े उन्हें बर्षो बीत चुके थे | यह गीत सुन कर हम तब भी भावुक हो उठते थे और अब तो रोना ही छूटता  है | एक समय हमारे स्कूल में श्रद्धेय रामकुमार वर्मा जी आये थे , उन्होंने अपने भाषण के अंत में गीत सुनाया था| गीत की पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार  थी ---

सजल जीवन की सिहरती धार पर ,

लहर बन कर यदि बहो तो ले चलो |

यह न मुझसे पूछना  मै किस दिशा से आ रहा हूँ ,

है कहाँ वह चरण रेखा जो की धोने जा रहा हूँ

पत्थरों की चोट जब  उर में लगे,

एक ही कलकल कहों तो ले चलूँ........

घर आकर वह पूरा का पूरा का गीत वह ऐसे सुनाती थी, जैसे काफी दिनों से उन्होंने अभ्यास किया हो | पर ऐसा कुछ नहीं था | उन्होंने गीत स्कूल प्रांगण में ही सुना था और उसके शब्द याद करके उसी सुर में सुनाती थी जिस सुर में श्री रामकुमार वर्माजी ने गाये  थे | और उससे भी आश्यर्य की बात थी कि कुछ साल पहले जब मैंने उन्हें उस गीत की याद दिलाई तो उन्हें जस का तस वह याद था उन्होंने गा कर भी मुझे सुनाया |  संगीत उनके प्राणों में बसा था |

                                                                          (क्रमशः)

 

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