प्रिय बहनों स्मरण के आकाश में भटकते हुए खरोचों के निशान आज मुझे दिखाई दे रहे हैं | मैंने इन्हें कभी नहीं देखा था | शब्द टूट गए थे , मन कहीं डोल गया था | अतीत के गर्त में समाया हुआ काल क्या फिर से प्रत्यावर्तन कर रहा है इतिहास के खाली पृष्ठों पर | चलने की आहट आज मुझे सुनाई दे रही है | इस सुनसान बिस्तर पर कौन हूँ मैं ? एक अतीत ? अथवा एक वर्तमान जो एक सेतु बन कर खड़ा है , इस छूटे विगत के बीच चलते रहो मुक्त होकर चलते रहो , यह सेतु मुझे जोड़ देगा ओह ! मेरी गति आज मुझे अपनी परछाई भी स्वीकार नहीं है प्रिय परिजन अब मुझे सोने दो, चलो, देर रात हो गई है पक्षी सब घोंसलों में घुस चुके है | पथचारी भी अपने अपने गृहों में लौट चुके हैं | लेकिन कुछ निशाचर अभी डोल रहे हैं सड़कों पर कुछ उद्याम सपने संजोये | कुछ ने फुटपाथ पर अपना आस्थाना बना लिया है धरती के आँगन में और मै इस आलीशान बिस्तर पर कुछ अपरिचित कवच में बद्ध ओ! मेरे मन वहन करो पीड़ा सहन करो अपरिसीम व...
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Showing posts from May, 2021
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बहन और कॉलेज का एडमिशन खिड़की के पीछे से एक छाया दिखाई दे रही थी | खिड़की से ही सटा हुआ था ताई और ताऊजी का कमरा | किसकी छाया ? तनाव में तो हम सभी बहनें थी क्योंकि आज कॉलेज एडमिशन का अंतिम दिन था | बड़ी बहन का एडमिशन अभी तक नहीं हुआ था | उनका मन अंकगणित पढने का था, पर तब तक अंकगणित की सारी सीटें भर चुकी थी | गणित में आनर्स पढ़ने की तो अब कोई उम्मीद नहीं रही | आज अंतिम दिन था बाकी विषयों में एडमिशन का, जहाँ कुछ सीटें अभी भी खाली थी | पिताजी ने कहा , देखो हम इंतजाम करते है जिस विषय में मिले उसी में एडमिशन ले लेना, कम से कम पढाई तो चालू रहे | लेकिन कैसे ? सुबह का ११ बज गया अभी तक पैसे का कोई इंतजाम नहीं हुआ था | इसी तनाव में बहन खिड़की के पास बरांडे में खड़ी थी | निराश होकर उम्मीद छोड़ चुकी थी | रोने की इच्छा हो रही थी , पर रोये भी तो कैसे ? पिताजी कोशिश तो कर ही रहे थे | वैसे भी बहन का स्वभाव प्रतिवादी नहीं था , जो हो रहा था उसी को वे स्वीकार कर लेती थी| अंत में कोई उपाय न देख कर पिताजी ने ताऊजी से धीरे से कहा , “ उमा के एडमिशन के लिए ११ रुपये फीस के ...
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बड़ी बहन और हमारा बार्षिकोत्सव हम अपनी बहन के नृत्य और गायन के तो वैसे ही कायल थे , और जब उन्होंने प्रस्ताव दिया कि क्यों न हम लोग एक प्रोग्राम का आयोजन करे जिसमे हम सभी बहने अंश ग्रहण करेगी किन्तु हमारे मास्टरजी का पार्ट खुद उनके ही हाथ में रहेगा |और क्यों न होता उन्ही को नृत्य , गान, नाटक वगैरह वगैरह सब आता था | हम लोग उनके प्रस्ताव से सहर्ष राजी हो गये, वह तो होना ही था |जोरशोर से हम रिहर्सल में लग गए | वो हमें गाना नाच नाटक का अभ्यास तो रोज शाम को करवाती ही थी, उसके साथ कभी कभी लोजेंस का लोभ दिखा कर कुछ अतिरिक्त समय रिहर्सल भी करवा लेती थी | वह सब हम छोटी बहने ख़ुशी ख़ुशी करते थे क्योकि स्कूल के उत्सव में हम अपनी आर्थिक तंगी के कारण भाग नहीं ले पाते थे, इसलिए अपनी मन की आस मिटने का यह सबसे अच्छा तरीका था | स्कूल में कई बार चयन होने के पश्चात् हम भाग नहीं ले पाते थे उसका कारण था हमारे पास ड्रेस सिलवाने के पैसे नहीं होते थे | जो भी हो १५ से २० दिन तक हमारा रिहर्सल चलता था , फिर बाकायदा निश्चित दिन आने के पहले ...
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बड़ी बहन और कबीर, तुलसी, सूर, मीरा “रस गगन में गुफा ऽ ऽ ऽ ऽ में अजर झरे , रस गगन में गुफा ऽ ऽ ऽ ऽ में अजर झरे” मन को झकझोर देनेवाले कबीरदासजी की वाणी और बहन का सुर एक अजीबोगरीब प्रश्न सामने खड़ा कर देता ---कौन सा रस, कैसा रस ? रस की गुफा ? कहाँ ? फिर भी उनकी आवाज का रस जादू हम पर जाता था और हम फटी आवाज में उनके साथ गाने के लिए मजबूर हो जाते | वह फिर तान छेडती, “पायोजी मैंने राम ऽ ऽ ऽ रतन ऽ ऽ ऽधन पायो” —उनका यह ‘रतन-धन’ शायद कोई कभी नहीं समझ सका | कभी वह गा उठती , “भज मन राम चरण सुख दाई...जिन चरणों ....से निकल सुरसरि....शंकर जटा समाई ....” उनका ‘राम-चरण’ बस यही गीत संगीत था , जिसके पीछे-पीछे हम सभी बहने नक़ल करके गाया करते थे| इसलिए आज भी उनके शब्द जेहन में बस उतरे हुए है, लेकिन गाने की सामर्थ्य हममें से किसी में भी नहीं है |उनके पास एक सिंगल रीड का हारमोनियम था जिसे पिताजी ने बड़ी कसौटी से उनक...