बड़ी बहन और बकसिया
जैसे ही बहनजी स्कूल जाने की तैयारी करती,
हमारी फारमाँईशो का पुलिंदा उनके सामने खुल जाता | “बहनजी – जानवर वाला, बिस्कुट,
टाफी, कम्पट” —जोर जोर से चिल्ला चिल्ला कर अपनी फरमाईशे पेश करते थे | हालाँकि हम छोटी बहने
जानते थे कि बड़ी बहन को उस समय सिर्फ़ दो आना हाथ-खर्च मिलता था| इतने से
पैसे में वो हमारी इतनी डिमांड कैसे पूरी
करेगी ? छोटे होने के कारण हमें मिलता था एक आना, जो हम खा-पीकर कब का ख़त्म
कर देते थे और नज़र रहती थी उनके दो आने पर
| हम तो चाहते थे वे अपने दो आने में हमारे लिए सारी दुनिया बटोर कर ले आये !!!
चार छोटी बहनों की मांग पूरी करना वे शायद अपना फर्ज समझती थी | इसलिए वे अपने दो आने का अच्छा सदुपयोग करती थी
|जब वह साढ़े चार बजे के करीब स्कूल से लौटती तो हम बरांडे में खड़े होकर उनका
इंतजार करते रहते थे | हमारा फ्लैट उस समय तीन
तल्ले पर था , आज की तरह नीचे तल्ले
नहीं बल्कि काफी ऊँचा था और हम तालियाँ बजा बजा कर उनके आगमन की सूचना घर
भर को दे दिया करते थे | ये छुटंकी बहन किसी कारणवश यदि वहां नहीं होती तो वह भी दौड़ कर हमारी भीड़ में
शामिल हो जाती और नन्हे नन्हे हाथों से
तालियों से स्वागत करने जुट जाती | धीरे धीरे यह कोलाहल शांत होता जब माँ जोर से
चिल्ला कर कहती , ‘घर सर पर उठा रखा है इन
मुझौसियों ने , चुप करो’ | पर हमें कहाँ रहाईश थी | हममे जो थोड़ी बड़ी थी वो तो
नीचे रास्ते में उतर जाती और जैसे ही बड़ी बहन रास्ता पर करके फुटपाथ पर आती , वह
उनके हाथ से उनकी ‘बकसिया’ ले लेती और उनके साथ ही ऊपर चढ़ कर आती,क्योकि वो जानना
चाहती थी कि उनका सर्कस बिस्किट इसमें है कि नहीं ?
एक बात चुपके से बताऊँ यह कि उनकी इस
‘बकसिया’ पर हम सभी बहनों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती थी , क्योकि यह सौभाग्य
पिताजी ने एकमात्र उन्ही को दिया था कि वे
स्कूल की किताबे बकसिया में ले जाये | हमारे
पल्ले तो वही कपडे वाला झोला था, जो आज
वामपंथी पहचान बन चुका है | उस ‘बकसिया’ में ऐसा क्या था जो हम सभी बहने जिंदगी भर
उस ‘बकसिया’ के पीछे पागल बने रहे पर
पिताजी ने वैसी ‘बकसिया’ हमें कभी खरीद कर नहीं दी | उनका तर्क था इसको ज्यादा देर
पकड़ने से हाथ में गट्टे पड़ जाते है | हम
लोग अपनी बहन का हाथ पकड़ का उन गट्टों को फील करते थे, और कभी रुमाल या कपड़ा पकड़ा
कर कहते थे –इससे पकड़ा करो | वो वैसा करती भी थी | लेकिन गट्टे उनकी अंगुलियो में
बने ही रहते थे |माँ कहती –‘उसकी ‘बकसिया’
में ऐसा क्या ‘निन्नी का धन’ है जो तुमलोग उसके आसपास मंडराया करती हो |’पर हम तो
दीवाने थे उस ‘बकसिया’ के | तब हमारी उत्सुकता और भी बढ जाती जब पिताजी ने उन्हें
एक ताला भी लाकर दिया और कहा , “स्कूल में चोरी के डर से इसमें ताला लगा लिया करो
|’ हम शैतानो का दल उसमे चिमटी फंस कर खोलने की कोशिश करते , एकाध बार सफल भी हो
जाते पर कुछ किताबों कापियों के अलावा कुछ खास नहीं मिलता था हमें | फिर भी हमारी निगाह
उस ‘पर टिकी ही रहती थी –अजीब पिटारा था
वह हमारी नज़र में |काफी समय बाद मेरी एक
बहन ने वैसी ही एक बक्सा खरीदा भी अपनी पुरानी
आस मिटाने के लिए , पर उसमें वह संतोष या
सुख न मिला जो बड़ी बहनजी की ‘बकसिया’ को देखकर मिलता था |हम उसे हसरत भरी निगाहों
से कभी छूकर, कभी हाथ में लेकर, कभी कभी तो उसे हाथ में लेकर घर भर में घूमते भी रहते
थे उनकी आंख बचा कर| आज तक समझ नहीं आया
कि उसके स्पर्श में ऐसा क्या था | आह ! वह
रहस्य का खजाना था (मिस्ट्री बॉक्स) | जब वह कॉलेज में चली गई तब भी वह हमारे घर
काफी सालों तक व्यवहार में आती रही, और शायद घर बदलने के समय ही वह फिर कहीं छूट
गई | आज भी उसकी स्मृति उतनी ही ताजी है जितनी तब थी | मेरी आंख के सामने ऐसा लग रहा है –वह अपने
सवालों के जवाव मांग रही है | ‘बकसिया’ शब्द असल में बॉक्स का ही स्त्रीलिंग है,
चूँकि उसे बहन व्यवहार करती थी इसलिए हमलोग उसे ‘बकसिया’ कहते थे, अथवा वह एक छोटा
स्टील का बॉक्स था जिसमे किताबें वगैरह रख कर बहन स्कूल ले जाती थी, इसलिए उसे
बकसिया नामकरण किया, आज कोई आईडिया नहीं है उसके बारे में |
हां , तो कहाँ पहुंचे थे हम ? बीच में वो
बकसिया वाली बात ने पैर पसार लिए !! तो मेरी एक और बहन नीचे सीढियों से उतर कर
उनके हाथ से वह ऐतिहासिक बकसिया ले लेती, यूँ जैसे कोई प्यादा अपने नुमाइन्दे के
हाथ से फाइल, छाता, डंडा वगैरह वगैरह पकड़ लेता है | ऊपर कमरे में पहुँचने के साथ साथ ‘बन्दर बाँट’
शुरू हो जाती और उसके साथ पूछताछ -- किसको क्या मिला ? दो आने में इतनी चीज बहन
कैसे ले आती थी ? हमने यह सवाल उनसे कभी नहीं पूछा और न ही पूछा वह खुद क्या लेती
है अपने लिए उस दो आने में | इसका खुलासा हुआ काफी दिनों बाद – एक दिन जब मैंने
यूँ ही पूछा –‘आपको गुस्सा नहीं आता था , हम लोग आपका दो आना भी खा जाते थे, और आप
इतना सब सामान दो आने में कैसे ले आती थी , तो वो कहती –अरे !! ममी जो सौदा-सुलुफ
का पैसा देती थी उसी से कुछ बचा हुआ पैसा
होता था, उसी से मै मैनेज कर लेती थी | और गुस्सा क्यों ? वह तो मुझे अच्छा लगता
था –जब तुम लोग दौड़ कर मेरी बकसिया पकड़ कर ऊपर लाती थी | छोटा सा ही सही स्वागत पर
था तो रस भरा !!! (क्रमशः)
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