पानी के पालनहारे
प्रियंकर पालीवाल

पानी पालनहार है
वे पानी के पालनहारे थे
जल और मनुष्य के पुरातन रिश्ते का
महत्व जानते थे वे
वे जानते थे सागर से बिछुड़ी बूंद की भटकन
नदी से बिछड़े नीर की हौलनाक दास्तान
वे ठीक-ठीक समझ पाते थे बादल और बूंद के रिश्ते को
पानी और मिट्टी से बिछोह का दर्द उन्हें बेचैन किए रहता था
मिट्टी उन्हें पहचानती थी और वे मिट्टी को
वे हाड़तोड़ मेहनत करने वाले किसान थे
सिल्क रूट पर काफिले लेकर चलते हुए
अपने समय के सम्मान्य सार्थपति-सार्थवान थे
सैनिकों की भांति वे खेल सकते थे रण-कौशल
चमका सकते थे युद्ध में तलवार
नियम-निष्ठा में उन्होंने द्विजत्व के मानदण्डों को किया था अंगीकार
वे ही थे जिन्होंने जाति-श्रेष्ठता की ऊर्ध्वाधर मान्यताओं को
कर दिया था अस्वीकार
अनुक्रम में नहीं, उनका भरोसा अनुग्रह और अनुराग में था
श्रम-उद्यम नवाचार में था, न्यायपूर्ण वितरण और सतत विकास में था 
मरुदेस के उर्वर खड़ीनों में बिखरा है
उनके श्रम-उद्यम और स्वावलम्बन का उजास
जालिम सालिम के सिपहसालार भी दुहराते रहे 
उनके पानीदार होने की दास्तान
जिन्होंने अपनी पत रखी और बनाए रखी
अपने पुरखों की उज्ज्वल कीर्ति, उनकी आन-बान
अपने उद्यम से ही बिना घाट के वे सिरज सके
मरुभूमि से मध्य-एशिया तक फैले हाट
उनकी गतिशीलता और साहसिक यायावरी के गवाह हैं
उत्तरापथ से सुदूर देश-देशांतरों के फेरे करते सार्थवाह
कर्नल टॉड की मानें तो रणबांकुरे राजपूत
राव-उमराव-राजा सब जानते थे उनकी जीवन-शैली
मानते थे उनके नैष्ठिक ठाठ-बाट, जिसमें
समाज हमेशा व्यक्ति के पहले आता था
समता और सहभागिता में रचे-बसे सामुदायिक जीवन का
एक आदर्श-रूप आयत्त था उनके सामूहिक चित्त में 
वे चले गए एक दिन, कुछ यूं कि जैसे वे थे ही नहीं
जो चले जाते हैं, उनकी दास्तानें रह जाती हैं
सामान्यतः जो इतिहास नहीं कहता, दास्तानें कह जाती हैं
वे चले गए, पर वे रह गए
वे रह गए जनश्रुतियों में, पुराकथाओं में
श्रम-उद्यम और न्याय की नीतिकथाओं में
मांगणियारों की गीतिकथाओं में
विदा-वेला की करुण कविताओं में— सिसकियों में
मनुष्य के स्वाभिमान की समरगाथाओं में
उसके अकथ दुख और हिचकियों में
अपने मान-सम्मान की खातिर
वे एक दिन अचानक चले गए
घर-द्वार, गांव-जवार, खड़ीन-बावड़ी-तालाब
सब तिनके की तरह त्याग कर वे चले गए
वे चले गए अपने आस-पड़ोस और पशु-पक्षियों को
डबडबाई आंखों से, भरे मन से निहारते हुए

गायें रंभाती रहीं, पक्षी कुरलाते रहे पर वे रुके नहीं
वे निर्मम हो सकते थे, अपने खुद के प्रति निर्मम
पेड़ों की हिलती डालियों को उन्होंने विदा का संकेत माना
और चल दिए एक अजानी दिशा की ओर
यह सुरक्षा पर स्वाभिमान का चुनाव था 
वे दोआब की ओर गए, पंजाब की ओर गए
बरकरार रखने अपनी आब
आंखों में काक और लूणी का जल समेटे
उन्होंने गंगा और यमुना की अभ्यर्थना की 
नर्मदा और बेतवा से आश्रय मांगा 
निराश नहीं किया मातृदेवियों ने इन्हें
लगा लिया अपने कलेजे से .
सतपुड़ा के घने जंगलों को मंझाते वे
नर्मदा के किनारे मालवा गए
बेतवा के सहारे बुंदेलखण्ड
जल-थल एक करते वे
खम्भात की खाड़ी की ओर गए
कूच किया देवभूमि द्वारका तक
वे सौराष्ट्र गए, महाराष्ट्र गए  
राजपूताने के किलों से उठकर
वे गढ़वाल के गढ़ों तक गए
वे उन सब जगहों पर गए
जहां वे जा सकते थे
अपने स्वाभिमान की सुगंध के साथ
आज़ादी की उमंग के साथ
अपनी आत्मा की उठान के साथ
मुक्ति के आकाशभेदी गान के साथ
पर उनका मन वहीं अटका था
वहीं तालाब के किनारे उस चबूतरे पर
जहां उनके पूर्वज अब भी विश्राम कर रहे हैं
जिसकी एक-एक ईंट उनके श्रम-स्वावलम्बन और शौर्य की--
उनके अनूठे बलिदान की कथा कहती है
जहां उनकी कीर्ति-सरिता अब भी मंथर गति से बहती है 
नहीं ! वे डर कर नहीं गए थे
आग और पानी के सारे खेल जानते थे वे
हिंसा की व्यर्थता को वे जान चुके थे
वे रक्त की नदी से गुज़र कर आए थे 
गवाह हैं धौला चौतरा की रक्त-सिक्त ईंटें
बीझणा तालाब के अरुण-वर्ण जल के छींटे
जो अब भी अंकित हैं इतिहास के पन्नों पर
पानी को जितने रूपों में, जितनी आकृतियों में
संजोया जा सकता  है, उतने जतन से
उन्होंने संजोया, शिव को सुंदर बनाते हुए
पानी से उनका रिश्ता 
महज आदिम नहीं, आत्मीय था
उनकी कथा जल और मिट्टी से बिछोह की व्यथा कथा है
उनकी कथा जल और मिट्टी से जुड़ाव की प्रेरक कथा है
उनकी कथा नई मिट्टी में रोपण और जिजीविषा की अकथ-कथा है ।

* * * * *

प्रियंकर पालीवाल
फोन: 9433831045

त्वरित समीक्षा

श्री प्रियंकर पालीवाल कि कविता ‘पानी के पालनहार’ अपने आप में एक दस्तावेज है उस जनश्रुति का जिसका आधार इतिहास से विलुप्त है | जनश्रुतियां कभी कभी बड़ी सशक्त गवाही का काम करती है, जो इस कविता के द्वारा उजागर किया गया है | सामान्यतः जो इतिहास नहीं कहता, दास्तानें कह जाती हैं –
वे चले गए, वे रह गए
जनश्रुतियों में, पुराकथाओं में |
कथा है राजस्थान के  जैसलमेर के निकट अवस्थित एक अभिशप्त  ‘कुलधर (कुलधारा) ग्राम की |  ३०० साल पहले यह भी एक खुशहाल गाँव था पर १९ वीं सदी में ऐसा क्या घटित हुआ कि अब यह वीरान और नीरव हो गया | मान्यता है कि इसके निवासी (पालीवाल ब्राह्मण) रातोरात इस गाँव को छोड़ कर, अपनी सुरक्षा और आत्म-सम्मान के वजूद को जिन्दा रखने  के लिए कही दूर अज्ञात स्थल की  ओर निकल गए |कवि के शब्दों में --
उनकी कथा जल और मिट्टी से बिछोह की व्यथा कथा है
उनकी कथा जल और मिट्टी से जुड़ाव की प्रेरक कथा है
उनकी कथा नई मिट्टी में रोपण और जिजीविषा की अकथ-कथा
और एक अभिशाप दे गए कि यह ग्राम अब कभी आबाद न हो सकेगा | कहते है की यहाँ पानी की कमी के कारण ‘उधनसर’ नाम का तालाव खुदवाया था जिसके साथ पालीवाल ब्राह्मणों का गहरा नाता था, वे ही इसके ‘पालनहार ‘ कहलाते थे | उनका सम्बन्ध पानी से ‘आदिम नहीं’  बल्कि ‘आत्मीय’ रिश्ता था |इस सम्बन्ध को तोड़ना एक नाडी वियोग था लेकिन अपने ‘आत्मा की उठान’ और ‘स्वाभिमान की सुगंध’ की  खातिर उन्हें गाँव का त्याग  करना पड़ा, क्योकि वे जानते थे कि व्यक्ति से बड़ा समाज का आत्म सम्मान  और गौरव है| इसलिए पूरा का पूरा ग्राम एक रात उसे त्याग कर कहीं  चला गया, क्योकि गाँव के मुखिया की बेटी पर राज्य के प्रधानमंत्री  सलीम सिंह कि बुरी नज़र थी |उनकी धमकी का जवाव गाँववालों ने उसके त्याग से ही दिया |सिर्फ़ मुखिया ही नहीं गाँव के हर व्यक्ति की आस्था से जुडी सामुदायिकता ने  एक आदर्श उपस्थित किया | आज के इस व्यक्ति-केन्द्रिक वास्तविकता के युग में  ऐसी उदात्त मिसाल  मिलनी दुर्लभ है –
समाज हमेशा व्यक्ति के पहले आता था
समता और सहभागिता में रचे-बसे सामुदायिक जीवन का
एक आदर्श-रूप आयत्त था उनके सामूहिक चित्त में  |
उनके इस त्याग के पीछे छुपा दर्द भी इस कविता के द्वारा मार्मिक ढंग से चित्रित किया गया है | नाडी-विछोह इतना सहज नहीं है, फिर भी नैतिकता के तले दबे गाँववालों ने यही रास्ता उपयुक्त समझा | इस प्रसंग  में  ‘जौहर-व्रत’ का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा, जहाँ सोलह हज़ार स्त्रियों ने अपने सतीत्व/आत्मसम्मान  की रक्षा के लिए अग्नि में प्रवेश करना ही उचित समझा  | कवि के शब्दों में :
अपने मान-सम्मान की खातिर,
वे एक दिन अचानक चले गए
घर-द्वार, गांव-जवार, खड़ीन-बावड़ी-तालाब ,
सब तिनके की तरह त्याग कर वे चले गए
इस अस्तित्व की लड़ाई में  अपने संपूर्ण  ‘अस्तित्व’ को नकारना, अपनी मिटटी को छोड़ना कोई साधारण बात नहीं है | अपनी जड़ो से टूटे व्यक्ति की क्या अवस्था होती है यह उपलब्धि हमें तब होती है जब हम अपनी जमीन से कही दूर चले जाते है | अधिक दूर जाने की आवश्यकता नहीं है, आज के परिप्रेक्ष्य में यदि देखे तो जो प्रवासी मजदूर अपने ‘घर वापसी अभियान’ में पैदल चल कर भी  किसी तरह आत्मीय स्वजनों के बीच पहुँच जाना चाहते है – यह इस बात का साक्षी है कि  अपनों से बिछुड़ना कितनी बड़ी त्रासदी है व्यक्ति के लिए  !
वे जानते थे सागर से बिछुड़ी बूंद की भटकन
नदी से बिछड़े नीर की हौलनाक दास्तान
पानी और मिट्टी से बिछोह का दर्द उन्हें बेचैन किए रहता था
मिट्टी उन्हें पहचानती थी और वे मिट्टी को |
फिर भी उन्होंने यह फैसला किया, क्योकि यह एक ऐसा आवेगजनित कृत है जिसकी कोई तार्किक व्याख्या नहीं दी जा सकती है | इसका मनस्तात्त्विक  विचार जरूर किया सकता है , लेकिन वह फिलहाल  ‘शव-व्यवच्छेद’ (पोस्ट-मोर्टेम) के अतिरिक और कुछ नहीं होगा | ऐसे  ‘अस्तित्व-संकट’  काल मे भी व्यक्ति के अस्तित्व का परिचय ऐसे महत कार्यो के द्वारा ही मिलता है | मै कहना चाहूंगी कि पश्चिमी अस्तित्ववाद से प्राच्य अस्तित्ववाद का आकलन करना इसलिए भी उचित नहीं होगा क्योकि यहाँ सारे सम्बन्धो को तोड़ने के पश्चात् भी जो तालीफ़ है वही उनके स्वयं के अस्तित्व का प्रमाण भी है | उसे पा लेने का गर्व-बोध है, जो उनके अस्तित्व का परिचायक भी है |
  ‘वे चले गए एक दिन, कुछ यूं कि जैसे वे थे ही नहीं ‘ --एक उच्च और पवित्र आदर्श की प्रतिष्ठा करता है, क्योकि उन्होंने अस्वीकार कर दिया  जाति-श्रेष्ठता’ और भरोसा  किया ‘अनुग्रह और अनुराग’ पर | मै उल्लेख करना चाहूंगी विश्व प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक इममैनुअल कांट की | उनके अनुसार ऐसे कार्यो का कोई मूल्य मापक नहीं होता, सिवाय  मर्यादा (डिग्निटी) के, क्योकि ये निशर्त किये जाते है | इसकी विस्तृत व्याख्या  अनपेक्षित है स्थानाभाव के कारण |मै तो चाहती हूँ  संपूर्ण कविता का ही नहीं प्रत्येक शब्द का विश्लेषण किया जाय, और यह तब जरूरी  हो जाता है जब इसके शब्द उन्हीं के किसी वंशधर की कलम से लिखे गए हो | इस दास्तान को कलमबद्ध करने के लिय कवि को साधुवाद और सदीनामा पत्रिका’ को इस अनमोल उपहार के लिए बधाई  |









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