Posts

  समीक्षा शब्दों के साथ साथ २ ―लेखक डा. सुरेश पन्त प्रकाशक ―पेंगुइन स्वदेश, पेंगुइन रैंडम हाउस इंप्रिंट मूल्य ―२५० रुपये छोटे छोटे तिरासी अनुच्छेदों में विभक्त पुस्तक, शब्दों के साथ साथ २ (लेखक डा. सुरेश पन्त), हिंदी भाषा प्रयोग को एक नई दृष्टि प्रदान करती है. भूमिका के आरम्भ में ही   रत्नेश कुमार मिश्रजी लिखते हैं― “शायद ही कोई ऐसा क्षण हो जब हमारे चारों ओर शब्दों की धमा-चौकड़ी न हो रही हो...केवल शब्द होते हैं, लिखे-अनलिखे, प्राणी-प्राणीतर, श्रुतिमधुर-कर्णकटु, प्रकट और अवगुंठित नानाविध शब्द!” इन बिखरे हुए करीब करीब पांच सौ शब्दों से हमारी पहचान डा. सुरेश पन्त की पुस्तक शब्दों के साथ साथ २ के माध्यम से होती   है. शब्दों की पोटली में छिपा है शब्दों का व्याकरण, इतिहास, भूगोल, समाज और लोक-व्यवहार का उज्जवल पक्ष. उच्चारण, वर्तनी और अर्थ, जिन्हें लेकर साधारण से असाधारण पाठक तक गच्चा खा जाते है, उनके लिए मार्गदर्शिका का काम करती लेखक की नवीनतम पुस्तक. डा. पन्त यह कार्य अतीत में भी बखूबी निभा चुके है. अपनी इस पुस्तक के द्वारा लेखक पुनःएक बार उपस्थित होते है पाठकों के सम्मुख और समर्प
  रस गगन गुफा में ...   मुझे अपने चाय की रेसिपी पर इतना अहंकार था कि घर में कोई भी मेहमान आए चाय बनाने का बीड़ा तो मैं ही उठाती थी . तो उस दिन शाम के समय कुछ मित्रों को मैंने चाय पर आमंत्रित किया और अपनी वही चाय बनाई जिसके लिए मै खुद को महारथी समझती थी.   चाय देने के बाद मेरा पहला वाक्य होता है , ‘चाय कैसी लगी ? ’.   इस बार एक या दो को छोड़ कर किसी को भी कुछ खास नहीं लगी , और फिर सबने अपनी अपनी चाय के स्वाद का बयान करना शुरू कर दिया――किसी को दार्जलिंग , तो किसी को आसाम , तो किसी को काली चाय , किसी को अदरक वाली, किसी को रोस्टेड . मै तो चुप ! बात सच थी. वस्तुतः जब कोई पदार्थ जीभ के संपर्क में आता है तो उससे हमें जो स्वादानुभूति होती है, उसे आयुर्वेद में रस कहा गया है. यूँ भी रस की व्युत्पत्ति ‘सरति इति रसः’ ऐसी मानी गयी है. अर्थात जो सरणशील , द्रवणशील हो , प्रवहमान हो , वह रस है अथवा जिसका आस्वादन किया जाय , वह रस है ―रस्यते आस्वाद्यते इति रस:. वैसे कोई भी भोज्य पदार्थ हो रस के बिना नीरस ही माना जाता है. आयुर्वेद में खाने पीने की किसी भी चीज के फायदे इन रसों के आधार पर ही निर्धारित
  अस्ति―अस्तित्व का झिंझोड़ दर्शनशास्त्र विभाग के छात्रों के बीच एक टेनिस टूर्नामेंट का आयोजन किया गया, पर दुर्भाग्यवश मैदान में खड़े होने के बावजूद छात्र मैच शुरू नहीं कर पा रहे थे. दर्शक चिल्ला रहे थे, तभी रेफरी ने शांत स्वर में कहा, “खिलाड़ी अभी इस विवाद में उलझे हैं कि ‘टेनिस वा ल’ का अस्तित्व है कि नहीं”. तो आज की वार्ता इसी अस्तित्व शब्द से शुरू करते है, जिसे अक्सर हम ‘अस्ति’ (‘है’) शब्द का समानार्थी मानते हैं. ‘है’ शब्द अस्तित्व, सत्ता, विद्यमानता, मौजूदगी, वजूद, होना, सत्य के अर्थ में प्रयुक्त होता है. यूँ तो ‘है’ एक क्रिया पद है जो वाक्य को पूर्णता प्रदान करता है, जैसे ‘यह टेबल है,’ ‘यह किताब है’ इत्यादि. पर मेरा उद्देश्य यहाँ ‘है’ का अर्थ विचार करना है. जैसे घोड़ा शब्द उच्चारण करने के साथ ही साथ घोड़ा पशु का बोध होता है, वैसे ही ‘है’ शब्द उच्चारण करने से किस अर्थ का बोध होता है?जाहिर है अस्तित्व, सत्ता इत्यादि का. मै देख सकती हूँ ‘मेरे कमरे में किताबें हैं, टेबल है, कंप्यूटर है यानि इनकी सत्ता है. कभी कभी कोई विशेष किताब कोई ले जाता है और वापस नहीं करता है, तो उसका अस्तित्व मे